Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
View full book text
________________
साक्षात्कार
1951 प्रश्न आपकी संपूर्ण शिक्षा विभिन्न शिक्षा केन्द्रों से हुई आज उनका स्मरण करना प्रासंगिक है इस पर कुछ
प्रकाश डालिये? उत्तर : मेरी कक्षा १ से पी-एच.डी. तक की शिक्षा अहमदाबाद में ही पूर्ण हुई है। हाँ! पिताजी की इच्छा पूर्ण
पंडित बनाने की थी- अतः सन १९५२-५३ में एक वर्ष खुरई गुरुकुल में रहा। वहाँ अवश्य 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' का अध्ययन किया व परीक्षा दी। दूसरे मात्र शौकिया तौर पर और युवा विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए सन १९७७ में सौराष्ट्र विश्व विद्यालय से LL.B.की परीक्षा पास की एवं प्रयाग
से साहित्यरत्न (१९६२) प्रायवेट रूप से किया। पर पूरी शिक्षा तो अहमदाबाद में ही पूर्ण हुई। । प्रश्न आज सफलता के जिस शिखर पर आप हैं उसमें आपके पारिवारिक जनों का क्या कोई विशिष्ट योगदान रहा है? । उत्तर : मेरे इस मुकाम पर पहुँचने में मेरे परिवार का परोक्ष सहयोग विशेष मानता हूँ।चूँकि मेरे पिताजी पढ़े लिखे
नहींवत् थे। गाँव में डकैती पड़ने के कारण वे अहमदाबाद आये थे। यहाँ जीवन यापन के लिए मजदूरी की थी। पर वे सदैव यही चाहते रहे कि मैं पढ़ लिखकर कुछ बनूं। उन्होंने मुझे मैट्रिक के बाद किसी काम में नहीं लगाया- पर मैं अध्यापक हो गया और इस नौकरी से मुझे पढ़ने की विशेष सुविधा प्राप्त हुई। पिताजीने सदैव पढ़ने का प्रोत्साहन दिया। यह अन्य बात है कि उन्हें यह पता नहीं था कि मैं कौनसी लाइन लूँ! सब मुझ पर छोड़ दिया था।
पर मेरी प्रगति में मेरी पत्नी का सबसे बड़ा योगदान रहा। मेरा विवाह १७॥ वर्ष की उम्र में मैट्रिक भी नहीं हुआ था तब हो गया था। मैं निरंतर पढ़ने की धुन में रहता। नौकरी करता, कॉलेज जाता, ट्युशन भी करता और पढ़ाई भी। वे इन सबसे मेरा ध्यान रखतीं- यथा समय तैयारी करना प्रातः ६.३० बजे टिफिन बना देना आदि। मेरी इस व्यस्तता में उन्होंने कभी विक्षेप नहीं किया। नववधू की जो इच्छायें होती । हैं वे उन्होंने कभी व्यक्त ही नहीं की। या यों कहूँ कि मैंने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। पर यह मेरी व्यस्तता उपेक्षा नहीं है इसे वे सदैव समझती रहीं। भौतिक आकाक्षायें कभी जुबान पर नहीं लाईं। संतोष उनका धन था उसे ही संजोये रहीं। मैथिली शरण की भाषा में कहूँ तो “वे दीप शिखा सी जलती रहीं - अपने प्रकाश से मुझे आलोकित करती रहीं और स्वयं अंधकार को पीती रहीं।" उनका यह दीपशिखा सा त्याग
ही मेरी उन्नति का मूल रहा है। प्रश्न लंबे सफल गृहस्थ जीवन का निर्वाह करते हुए आज के दम्पत्ति को आप क्या संदेश देना चाहेंगे? उत्तर : लंबे गृहस्थ जीवन का निर्वाह परस्पर की भावनाओं को समझकर सहयोगी बनने में किया है। अनेक बार
मतभेद भी हुए पर वे संज्वलन टाइप के रहे- पानी की लकीर। इस समझदारी से जीवन का निर्वाह सहज व सरल रहा और बच्चों को प्रेम से बाँधे रहा। संदेश तो यही हो सकता है कि पति-पत्नी परस्पर की भावनाओं
को समझकर जीवन जियें तो जीवन स्वर्णिम बन सकता है। प्रश्न आप एक लंबे समय तक प्राध्यापक एवं प्राचार्य रहे हैं इस शैक्षणिक जीवन का कोई यादगार संस्मरण? उत्तर : बहन! प्राथमिक से कॉलेज के अध्यापन- आचार्यत्व के लंबे ४१ वर्षों के सफर में अनेक मुकाम आये।
अरोह अवरोह आये। अनेक यादगार प्रसंग हैं। क्या भूलूँ क्या याद करूँ की स्थिति में हूँ। अतः एकाध
प्रसंग प्रस्तुत करना सरल नहीं लगता। कुछ प्रसंग मैंने ग्रंथ में प्रस्तुत अपनी जीवनी के साथ प्रस्तुत किए हैं। प्रश्न आपकी छवि एक जुझारू व्यक्तित्व और प्रबल समालोचक की है क्या यह छवि परिस्थितियों की देन है? उत्तर : जुझारू व्यक्तित्व या प्रबल समालोचक दृष्टि मात्र परिस्थितियों का परिणमन नहीं है। हाँ उनका आंशिक !