Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
View full book text
________________
जैन याकरपा परम्परा
2311 अन्यान्य जैनाचार्यों की टीका ग्रन्थों के लिखने के कारण एवम् जैन श्रणणसंघों में इसके पठन-पाठन के कारण उसे । जैनों में पूर्ण मान्यता प्राप्त है। यह व्याकरण सूत्रानुसारी न होकर प्रक्रियानुसारीक्रम में गुम्फित है।
___ ग्रन्थ के पूर्वार्द्ध में 574 एवम् उत्तरार्द्ध में 809 सूत्र इस प्रकार 1383 सूत्र हैं। इसमें मूलतः सन्धि, नाम । और आख्यात नाम से तीन अध्याय हैं। इन अध्यायों में सन्धि के अन्तर्गत पांच, नाम के अन्तर्गत छह पाद और | आख्यात में आठ पाद हैं। । 'मोदकं देहि' ऐसे रानी के द्वारा उक्त राजा सातवाहन के प्रति वचन के अनुसार मोदकम् पद में गुणसन्धि,
तथा "मोदकम्" स्याद्यन्य (नाम) पद एवं 'देहि' आख्यात पद के क्रम में व्याकरण निरुक्त है।4 बलदेव । उपाध्याय के मतानुसार कृदन्त नामक चतुर्थ अध्याय कात्यायन वररुचि प्रणीत है।
कातन्त्र का वैशिष्ट्य
कातन्त्र के वर्ण समाम्नाय में 52 वर्णसमाम्नात हैं। तथा इन स्वरों की पृथक्-पृथक् संज्ञा निर्देश किये हैं। कालबोधक लकारों के स्थान पर श्वस्तनी, ह्यस्तनी, अद्यतनी आदि संज्ञाओं को स्थान दिया गया है। य र ल व की अन्तःस्थ तथा श ष स ह की ऊष्म संज्ञा का निर्देश कर पूर्वाचार्यों के प्रति सम्मान दिखाया गया लगता है, यतः इनका विधि सूत्रों में कोई उपयोग नहीं मिलता है। ___ यह व्याकरण अत्यन्त संक्षेपता की स्वीकृति के कारण समस्त नियमों का कथन नहीं करता है और "लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धि" सूत्र द्वारा लोकप्रयोग द्वारा अनुपदिष्ट प्रयोगों की सिद्धि करने की घोषणा करता है।
कातन्त्र में सारल्य की मुख्यता होने के कारण संज्ञा पदों के स्थान संज्ञि वर्गों के कथन को प्रमुखता दी गयी है।
कातन्त्र में अनेक अपाणिनीय किन्तु साहित्य में प्रयुक्त शब्दों का प्रयोग करके उनको व्याकरण सम्मत बनाने का प्रयोग किया गया है।5।।
कातन्त्र में दशगणों के स्थान पर नवगण स्वीकृत हैं, यहां जुहोत्यादिगण अदादिगण में अन्तर्भूत है। इस प्रकार कातन्त्र व्याकरण अतिसरल विशद एवम् लौकिक संस्कृत के ज्ञानार्थ अल्पायासेन ग्राह्य एवं । बहुपयोगी है।
कातन्त्र के टीकाकार दुर्गसिंह
कान्तत्र पर उपलब्ध वृत्तियों में सर्वाधिक प्राचीन वृत्ति दुर्गसिंह विरचित है। दुर्गसिंह ने कातन्त्र के यजावेरुभयं (3-5-45) सूत्र की वृत्ति में भारवि और मयूर कवि के उद्धरणों को दिया है अतः इनका काल विक्रम की 7वीं शताब्दी माना जाता है।
दुर्गसिंह गुप्त
दुर्गसिंह वृत्ति पर 9वीं शताब्दी के दुर्गसिंहगुप्त ने एक टीका लिखी है ऐसा गुरूपद हालदार का मत है । परन्तु डॉ. ए.बी. कीथ के अनुसार स्वयं वृत्तिकार ने टीका लिखी। यह टीका बंगला लिपि में प्रकाशित हो ! चुकी है। उग्रभूति
इन्होंने लगभग वि. की 11वी शताब्दी में "शिष्यहितान्यास" नामक टीका लिखी है। इस टीका के प्रचार की कथा मुस्लिम यात्री अल्बेरूनी ने की। त्रिलोचनदास संभवत 11वीं शताब्दी में त्रिलोचनदास ने कातन्त्र पंजिका नाम्नी बृहती व्याख्या लिखी, जो बंगला लिपि में