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जैन वैयाकरण परम्परा
प्रा. अरुणकुमार जैन (ब्यावर) व्याकरणशास्त्र, साहित्य की विविध विधाओं में प्रमुख स्थान रखता है। व्याकरण से भाषा सुसंस्कारित होती है। सकल विद्याओं के हार्द के अवबोधार्थ व्याकरण का अध्ययन अनिवार्य माना गया है। भारतवर्ष में व्याकरणाध्ययन की एक सुदीर्घ परम्परा रही है, उसमें जैन वैयाकरणों का महनीय योगदान रहा है, पाणिनीय परम्परा के साथ-साथ जैनाचार्यों ने स्वतन्त्र व्याकरण परम्परा को पोषित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
वैदिक परम्परा में व्याकरण शास्त्र के आद्य प्रवक्ता ब्रह्मा माने गये हैं। ब्रह्मा ने बृहस्पति को एवम् बृहस्पति ने इन्द्र को व्याकरण का उपदेश दिया था तैत्तरीय संहिता 6/4/7 के "ते देवा इन्द्रमब्रुवन, इमां नो वाचं व्याकुर्विति..... तामिन्द्रो मध्यस्ताऽवक्रम्य व्याकरोत्" वचनानुसार सर्वप्रथम इन्द्र ने पदों के प्रकृति प्रत्यय आदि विभाग द्वारा शब्द विद्या का प्रतिपादन किया है। जैसाकि सायणाचार्य ने भी स्वीकार किया है। वाल्मीकि ! रामायण, जो विश्व का आय महाकाव्य माना जाता है, के उल्लेख सिद्ध करते हैं कि रामायण काल में व्याकरणाध्ययन की सुव्यवस्थित परम्परा सुविकिसत थी। प्रश्न उठता है, 'वैदिक परम्परावत् जैन परम्परा भी इतनी ही पुरानी है? हां, जैन वाङ्मय भी तथैव । व्याकरणशास्त्र-शब्दानुशासन-पदशास्त्र के आदि प्रवक्ता/प्रतिपादक के रूप में भगवान । ऋषभदेव को मानता है। प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ द्वारा प्रोक्त इस पदशास्त्रव्याकरणशास्त्र का नाम 'स्वयंभुव था, जो शताधिक अध्यायों से समुद्र के समान अतिगंभीर था। इससे जैन व्याकरण परम्परा के भगवान ऋषभदेव से प्रारम्भ होने का प्रमाण मिलता है, किन्तु भगवान महावीर से पूर्व के किसी लिपिबद्ध वाङ्मय के नहीं मिलने से मध्यवर्ती परम्परा के सूत्रों की खोज सम्भव नहीं है। अतः भगवान महावीर के निर्वाण के ६८३ वर्षों तक श्रुत की अलिखित परम्परा ही प्रवाहमाण थी, कालदोष से बल और बुद्धि आदि में निरन्तर ह्रास होने के कारण लेखन की आवश्यकता अनुभव की गयी। भगवान महावीर और उनके अनुयायियों ने अपने विचार और उपदेशों को पहुंचाने हेतु तत्कालीन जनभाषा प्राकृत का अवलम्बन लिया था। कालान्तर में जैन मनीषियों ने संस्कृत भाषा की व्यापकता को अनुभूत कर विद्वज्जनों में जैनत्व की पताका के वितान हेतु संस्कृत भाषा को अपनाना प्रारम्भ किया और शनैः शनैः जैनाचार्यों ने ज्ञान- ।