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साक्षात्कार।
1971 उत्तर : जैन पत्रिकायें में समाज में अपेक्षित स्थान नहीं बना पा रही हैं कारण कि पत्रिकाओं में बोझिल सैद्धांतिक
लेख, पंडिताऊ भाषा में छपते हैं अतः सामान्य पाठक उससे उदासीन रहता है। मात्र धर्म के चौखटे या समुदाय के चौखटे में संकीर्ण बातें अब नहीं चलेंगी- हमें साम्प्रत समस्याओं पर भी सोचना होगा।समाज
की समस्यायें भी प्रस्तुत करनी होंगी तभी हम समाज के साथ जुड़कर स्थान बना पायेंगे। । प्रश्न अपने संपादकियों के माध्यम से आप विद्वत् वर्ग को यदा-कदा कसौटी पर कसते रहे हैं? आज विद्वत्
वर्ग किस दिशा में जा रहा है? विशेषतः कथनी और करनी में अन्तर बढ़ता जा रहा है आप क्या कहना
चाहेंगे? उत्तर : यह बड़ा टची प्रश्न है पर मैं तो स्वयं को केन्द्र में रखकर विद्वानों की दुधारी नीति पर प्रहार करता
रहा हूँ। उहाहरणार्थ : अपरिग्रह का प्रवचन देने वाला विद्वान लिफाफे के लिए लड़ने लगता है। ऐसी अनेक बातें हैं। विद्वान को समाज के बीच एक उदाहरण बनना चाहिए..... पक्षापक्षी से ऊपर उठना चाहिए। स्वतंत्रता का उदघोषक ही स्वयं को गिरवी रखेगा तो टीका करनी ही पड़ेगी। आज विद्वान मेरी दृष्टि से दिशाहीन है। उसकी सिद्धांत से अधिक व्यक्ति पूजा या अर्थ की अपेक्षा पर अधिक नजर रहने
लगी है अतः वह उस ज्योतिर्मय व्यक्तित्व को खो चुका है। प्रश्न आपने पत्रिका संपादन से लेकर मानव सेवा के विभिन्न मूल्यों को स्थापित किया है विशेषतः 'समन्वय
ध्यान साधना केन्द्र' तथा अस्पताल की स्थापना की है इन सबका प्रेरणा सूत्र? उत्तर : समन्वय ध्यान साधना केन्द्र द्वारा मैंने धर्म समन्वय का दृष्टिकोण अपनाया है। और अस्पताल की प्रेरणा
में मेरे १९५३ की बीमारी मूलकारण रही है। मैं जैनधर्म में वर्णित औषधि दान को ही श्रेष्ठ दान मानता हूँ। मेरे लिए यही सच्चा मंदिर हैं। मुझे इस सेवा से बड़ी शांति मिलती है। जो जैन शब्द या जैनों के प्रति सद्भाव का कार्य करोड़ो रूपये खर्च करके प्रतिष्ठाओं द्वारा नहीं हो पाता वह मैं गरीब रोगियों की दवा करके पहुँचा पाता हूँ।मेरे यहाँ का अजैन रोगी (प्रायः९९ प्रतिशत) यही तो कहते हैं कि 'जैन अस्पताल'
में जाँच करवा आया हूँ। फैला न मेरा 'जैन' शब्द घर घर !! प्रश्न आज जैन साहित्य विपुल मात्रा में छप रहा है संख्या तो बढ़ी है किन्तु गुणवत्ता नहीं इस संदर्भ में आपके
विचार? उत्तर : जैन साहित्य का परिमाण बढ़ा है पर गुणवत्ता प्रश्न चिन्ह ही है। हम प्राचीन आगम ग्रंथों को सरल
भाषा में प्रस्तुत करने के बजाय अपना डुप्लीकेट माल ही घुसा रहे हैं। सबको स्वयं बड़ा साहित्यकार
कहलाने का मोह सता रहा है। हम कहें कि आज हमारा साहित्य 'Quntity without Quality' है। प्रश्न वर्तमान में नैतिक मूल्यों पर आधारित साहित्य के निर्माण, प्रचार और प्रसार की परम आवश्यकता
है इसके लिये आपकी अपनी कोई योजना है जिसे आप साकार करना चाहेंगे? उत्तर : मैं तो मानता हूँ कि पत्रिकाओं / पुस्तकों द्वारा सर्वप्रथम बच्चों को नैतिक शिक्षा प्रदान कराई जानी
चाहिए। उन्हें जैन संस्कारों से संस्कारित करना होगा यह कार्य विद्वानों, लेखको से अधिक माँ-बाप का होना चाहिए। हम ऐसे साहित्य को सरल कृतियों-प्रसंगो के आलेखन द्वारा करें तो निश्चित रूप
से कार्य होगा। मैं तो 'तीर्थंकर वाणी' के माध्यम से बालजगत के रूप में १४ वर्षों से लगा हूँ। लगा रहूँगा। प्रश्न साहित्यिक शोध एवं अनुसंधान के क्षेत्र में आपकी भावी योजनायें क्या है? उत्तर : साहित्यिक शोध में इतना ही कहूँगा कि आगम के गूढ विचारों को सरलता से प्रस्तुत किया जाये। आज ।