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अमाव संघर्ष एवं सफलता की कहानी।
1911 | कारण बड़ी परेशानी होती है। लेकिन गोष्ठियों, पर्युषण पर्व आदिमें जाने का लोभ नहीं रोक पाता हूँ। मैं अनुभव { करता हूँ कि कुछ दिन इस प्रकार बाहर रहने से मैं अधिक ताज़ा हो जाता हूँ और इससे मैं लौटकर दुगुना काम
कर लेता हैं। वैसे भी मैं यह मानता हूँ कि रोगिष्ट होकर बिस्तर पर पड़े रहने से अच्छा है कि कार्य करके कर्मठता । से जीवन को पूर्ण किया जाये।
मुझे झूठ से बड़ी चिढ़ है इसीलिए मैं वर्तमान में सर्वत्र चाहे विद्वानों की संस्थायें हों, चाहे धार्मिक संस्थायें, चाहे | पारिवारिक या सामाजिक संस्थायें हों जहाँ कहीं भी झूठ आदि को या गंदी राजनीति को देखता हूँ तो मेरा क्रोध | बढ़ जाता है। मैं यह सब नहीं चला पाता हूँ।शायद इसका कारण दिनकरजी की वे पंक्तियाँ मेरे जीवन में ओत। प्रोत हो गई हैं और उन्हीं के कारण मैं निडर बना, स्पष्ट वक्ता बना और अन्याय के प्रति संघर्ष करता रहा। | पंक्तियाँ हैं
'जिया प्रज्वलित अंगारे सा, मैं आजीवन जग में रुधिर नहीं था आग पिघलकर बहती थी रग-रग में यह जन कभी किसी का मान न सह सकता था
देख कहीं अपमान किसी का मौन न रह सकता था।' मुझे ऐसे अनेक प्रसंगों से गुजरना पड़ा कि जिससे मुझे सत्य के लिए संघर्ष करना पड़ा।
मेरी छाप कड़क वक्ता के रूप में है। सच-सच जैसे का तैसा कह देना मेरा स्वभाव हो गया है। ऐसी वाणी के समर्थक कम और टीकाकार ही अधिक मिले हैं। इससे दोस्त कम पर विरोधी अधिक बने हैं।
भोजन में मुझे नमकीन खाने की बहुत आदत है। फिर चाहे पेट खराब रहे या ऐसिडिटी होती रहे। कुछ न कुछ मीठा खाने को अवश्य चाहिए।
मेरे स्वभाव में एक तो मिलिट्री ट्रेनिंग के कारण, दूसरे होस्टेल और कॉलेज में आचार्य पद के व्यवस्थापन के कारण और जीवन में संघर्षो के कारण आदेश देने की आदत हो गई है और इसे लोग मेरा तानाशाही रवैया ही मानते है। परिवार के लोग इसे मेरा आतंक मानते हैं। जिसके कारण परिवार के लोग या समाज के लोग खुलकर । मुझसे कुछ नहीं कहते। परंतु लगता है कि वे अंतर से खुश भी नहीं है। मेरे इस अधिनायक स्वभाव से एक अच्छाई यह भी रही कि परिवार में एक शिस्त और संयम का वातावरण बना रहा। लेकिन इससे मुझे एक हानि यह हुई कि लोग मेरे साथ घुलमिल नहीं सके। मैं परिवार का मित्र न बन सका। सदैव बुजुर्गी का लबादा ओदे रहा और डंडे की भाषा के कारण कभी-कभी उपेक्षित भी रहा। मैं समय की पाबंदी का पूरा ध्यान रखता हूँ अतः यदि कहीं पहुंचने में देर हो या कभी कोई समय देकर समय से न पहुँचे तो मुझे बड़ी चिढ़ होती है। मुझे यह सहन नहीं होता।
प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गांधीजी के साथ के क्षण यद्यपि भावनगर की कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में यह मेरा प्रथम वर्ष ही था। पर कार्यकुशलता, व्यवस्था शक्ति के कारण कॉलेज से दिल्ली में आयोजित विश्व व्यापार मेला (एशियाड १९७२) में जानेवाली टूर का मुझे इनचार्ज बनाकर भेजने का आचार्य श्री नर्मदभाई त्रिवेदीने तय किया। साथ में युवा अध्यापक श्री भरतभाई ओझा एवं उनकी धर्मपत्नी प्रो. नीलाबहन साथ में थीं। लगभग ७०-८० विद्यार्थी-विद्यार्थिनी इस टूर में सम्मिलित हुए। वहाँ हमारी प्रार्थना पर तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गांधीजी से मुलाकात तय हुई। उन दिनों इतनी सिक्युरीटी या परेशानी नहीं थी। हमलोग विद्यार्थियों के साथ बड़ी सरलता से प्रातः ९ बजे उनके