________________
1861
स्मृतियों के खातामा किया गया। पूरी कार्यकारिणी बनी। मैंने अपनी शक्ति से जो कुछ भी बन सकता था वह कार्य किया। चूँकि
प्रारंभ से ही हम जिस उद्देश्य से जैसे विद्वानों को सदस्य बनाना चाहते थे वह नहीं हो पाया, जैसे अन्य संगठनों । में भरती होती है वैसी भरती करते गये। इस तरह संख्या बढ़ती रही। जो आज १०० से ऊपर है। मेरे कार्यकाल
के दौरान महामंत्रीजी ने उत्साहसे पहले तीन वर्ष कार्य किया था उसकी तुलना में अस्वस्थ होने के कारण कम | ही किया। वे स्वयं त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा जो पुरस्कार दिये जाते हैं उस समीति के सदस्य हैं। । सुना है कि सन् २००० का ग.आ. पुरस्कार जिसमें मेरा नाम भी विचाराधीन था- परंतु कुछ लोगों के यह विरोध करने पर कि मैं श्वेताम्बरों में जाता हूँ वहाँ से अस्पताल को दान लेता हूँ आदि.... आदि..... समझाकर वह पुरस्कार श्री शिवचरणलालजी को प्रदान किया गया। परंतु मुझे इस बात का संतोष था कि योग्य विद्वान को चुना गया है। यद्यपि यह बात मुझे बहुत ही विश्वस्त और जिम्मेदार व्यक्तिने बताई थी परंतु मैंने उसका कोई प्रतिभाव नहीं दिया था। पुनश्च २००५ के पुरस्कार के लिए मेरा नाम घोषित किया गया। अक्टूबर २००६ में पू. माताजी के जन्मदिन पर जो कार्यक्रम हुए उसमें जो त्रिदिवसीय गोष्ठि हुई वह पू. चंदनामतीजी एवं पू. क्षुल्लकजी के सहयोग से अति सफल रही। इसीतरह इससे पूर्व हुई कार्यकारिणी में पाँच विद्वानों को कंबोडीया, सिंगापुर आदि स्थानों पर भेजकर भ. पार्श्वनाथ एवं पू. माताजी के साहित्य के प्रचार की जो योजना बनी थी जिसमें ५० प्रतिशत खर्च जानेवाले विद्वानों को देना था और शेष संस्थान को देना था, जो परदेश से दान स्वरूप प्राप्त राशि में से संस्था को लौटा देना था। परंतु यह योजना अर्थाभाव के कारण सम्पन्न नहीं हो सकी। ___ मैंने अपने स्वास्थ्य और कार्य की व्यस्तता को कारण अपना त्यागपत्र भेजा और समस्त हकीकत को प्रस्तुत किया। चूँकि माताजी का स्पष्ट आदेश था कि भ. बाहुबली के मस्तकाभिषेक तक डॉ. शेखरचन्द्रजी का त्यागपत्र मंजूर नहीं किया जायेगा। वहाँ वे ही विद्वत् महासंघ के अध्यक्ष के रूप में जायेंगे। खैर! यह सब चलता रहा। अप्रैल में माताजी के ५०वें स्वर्णजयंति दीक्षा समारोह पर यह बात मैंने रखी लेकिन उस समय बात को टाल दिया गया। ___ आखिर श्री रवीन्द्रजीने ८ जून २००६ को कार्यकारिणी की मीटिंग आहूत की। कुल १०-१२ लोग पहुँचे। पू. माताजी के सानिध्य में मीटिंग हुई, मेरा त्यागपत्र प्रस्तुत किया गया। मैं तो यही चाहता था कि मेरा त्यागपत्र स्वीकत हो। वह स्वीकार हआ और सर्वसम्मति से यह तय किया गया कि ब्र. रवीन्द्रजी शेष १८ महिने के लिए
अध्यक्ष पद का भार सम्हाले। जिसका उन्होंने स्वीकार किया। ____ भ. ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ जिसके निर्माण में मैं नींव के पत्थर की तरह रहा हूँ। जिसके विकास में मेरा योगदान रहा है, मैं चाहता हूँ कि वह किसी तरह कमजोर न हो। मैं सदैव इसका समर्थक रहा हूँ और रहूँगा।
भांग का प्रसंग
यह बड़ा ही रोमांचक और हास्यप्रद परंतु यादगार प्रसंग है। सन् १९६५ में जब मैं राजकोट में था और मैं, डॉ. मजीठिया और श्री पांड्या एक ही कमरे में रहते थे। हमारे साथ श्री पांड्याजी के भाई जो राजकोट में ही किसी लेथ मशीन पर काम करते थे-कम पढ़े-लिखे थे- साथ में रहते थे। मुझे उस समय कभी-कभी भाँग पीने की आदत थी। सो अहमदाबाद से लगभग तीन-चार तोला भाँग ले गया था। एकबार निर्भयरामजी के भाईने मुझसे माँग कर कुछ भाँग ले ली। उन्हें दूसरे दिन राजस्थान जाना था, और जेब में भाँग की पुडिया रखकर रात्रि को राजकोट में बदनाम रेडलाईट ऐरिया से किसी मित्र से मिलने हेतु जा रहे थे कि पुलिस ने उनकी तलाशी ली और उस पुड़िया को देखकर पूछा- 'इसमें क्या है?' उन्होंने बड़े ही निर्दोष भाव से कहा 'इसमें भांग है।' उन्हें पता । नहीं था कि गुजरात में भाँग प्रतिबंधित है। उन्हें पुलिस चौकी ले जाया गया। वहाँ वे बार-बार कहते रहे कि मेरे ।