Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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भाकरसफलताशी
1671 मोम्बासा का समुद्री किनारा विश्व के उत्तम सी बीच में से एक है। पूरे रास्ते में काजू से लदे हुए वृक्ष और हरियाली बरवस अपनी ओर खींच लेती है। नैरोबी से बाहर जो छोटे-छोटे गाँव है वहाँ के निवासी आज भी पूरी जंगली अवस्था में अशिक्षित और भूखमरी से लाचार हैं। यहाँ पर भी अल्पविकसित देशों में जो भ्रष्टाचार पनपा है वह नजर आता है। यहाँ के निवासियों के मनमें भारतीयों के प्रति बहुत नफरत है। उन्हें वे शोषक के रूप में
देखते हैं। आये दिन चीरी डकैती करके हत्यायें करते रहते हैं। ऐसी ही एक घटना प्रसिद्ध जैन व्यापारी श्री | घडियालीजी के साथ भी देखी थी जिसे हमने अपनी आँखों से देखा था।
नैरोबी जाने से पूर्व की विशेष घटना
नैरोबी का आमंत्रण तो तीन महिने पहले आ गया था। टिकट भी बुक हो गई थी। नैरोबी जाने का उमंग और . उत्साह था। पर इधर मेरी माँ की तबीयत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी। जाने के लगभग एक महिना पूर्व | से वे कोमा में चली गईं और हालत बिगड़ गई। प्रश्न खड़ा हुआ जाऊँ या न जाऊँ। एक ओर परदेश में आलेख । प्रस्तुत करने का लोभ था तो दूसरी ओर माँ की तबीयत का प्रश्न था। पारिवारिक सलाह मशवरा करने के बाद
आखिर जाने का तय किया। जाने से पहले माँ के कान में इतना ही कहा 'मेरे आने से पहले चली मत जाना।' । भगवान पर भरोसा करके चला गया। २२ दिन बाद लौटकर आया तो माँ की तबीयत वैसी ही थी। दिनभर माँ । के पास बैठा। अहमदाबाद में चुनाव का माहौल था। लोगों ने प्रचार में चलने के लिए कहा। मैंने उन्हें यह कहकर
टाल दिया कि आज थके हैं माँ के पास बैठेंगे, कल चलेंगे। वह रात माँ के पास बैठने की अंतिम रात थी। लगभग । ११ बजे के करीब उन्होंने एक क्षण को आँखें खोली और सदा के लिए बंद कर ली। यह मेरी धार्मिक आस्था का | ही प्रतिबिंब था कि माँ मेरे आने तक मानों मेरी प्रतीक्षा कर वचन का पालन कर रहीं थीं।
समन्वय ध्यान साधना केन्द्र और 'तीर्थंकर वाणी' का प्रारंभ
अहमदाबाद आना मेरे लिए बड़ा ही उपयोगी सिद्ध हुआ। यहाँ आने के पश्चात छोटे पुत्र डॉ. अशेष जो एम.डी. कर रहा था और सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह हुआ कि उसको प्राईवेट नर्सग होम प्रारंभ करा सका। आर्थिक समस्यायें थी परंतु लोन आदि की व्यवस्था से यह कार्य संपन्न हुआ। यहाँ आने के पश्चात सामाजिक और लेखन के कार्य भी अच्छे हो सके। यहाँ भी एक वर्ष श्री महावीर जैन विद्यालय में रेक्टर के रूप में सेवायें । प्रदान की। लेकिन समय की प्रतिकूलता और कार्य का विस्तरण होने से यह कार्य छोड़ना पड़ा। यहाँ आने के पश्चात बड़े पुत्र की शादी का कार्य संपन्न किया। मकान की ऊपरी मंजिल का कार्य पूर्ण हुआ। इसी दौरान हम कुछ मित्रों ने मिलकर १९८८ में 'समन्वय ध्यान साधना केन्द्र' नामका एक ट्रस्ट बनाया और उसे रजिस्टर्ड कराया। भावना थी की इस ट्रस्ट के माध्यम से कोई अच्छा सामाजिक कार्य किया जाय।
प्रतिवर्ष पर्युषण और दशलक्षण पर्वमें प्रवचनार्थ जाता ही रहता था। सन १९९३ में सागर मध्यप्रदेश प्रवचनार्थ गया। वहाँ सेठ श्री डालचंदजी (पूर्व सांसद) और सेठश्री मोतीलालजी से परिचय और घनिष्ठता हुई। सेठ मोतीलालजी ने मेरे कार्यों के प्रति विशेष रूचि दिखाई। वे स्वयं बीड़ी के बड़े व्यापारी हैं और जिनके यहाँ से एक दैनिक पत्र प्रकाशित होता है। वे स्वयं भी एक अच्छे चिंतक और लेखक हैं। वहाँ पर मैंने समन्वय ध्यान साधना केन्द्र की स्थापना की चर्चा की ओर गरीबों के लिए एक छोटा अस्पताल प्रारंभ करने का संकल्प व्यक्त किया। हमारी भावनाओं से वे संमत हुए और सबसे पहले यह निश्चय किया गया कि अपने विचारों के प्रचार-प्रसार । हेतु एक पत्रिका का प्रारंभ किया जाये। उनके पुत्र श्री सुनील जैन जो मध्यप्रदेश में विधायक थे। युवा-कर्मठ ।