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स्मृतियों के वातायन ।
धाक थी- इज्जत थी, वे भी बनारस के होने के कारण उसका ही पक्ष लेने लगे। आखिर 'घुटना झुका भी तो 1 पेट की ओर' आखिर मानसिक तनाव, माताजी और पिताजी को गुंडागीर्दी से लगने वाला भय इन कारणों से वह मकान हमारे हाथ से हड़प लिया गया; इस कारण कि हमारा किसी गुडे या पुलिस से परिचय नहीं था। २) मित्र द्वारा ही लाखों की रकम हड़प जाना
मेरे जीवन का यह एक प्रसंग अत्यंत ही मानसिक उद्वेलन करनेवाला रहा। विश्वासघात का इससे बड़ा कोई उदाहरण नहीं। मैं सन् १९९७ में रिटायर्ड हुआ । ग्रेज्युइटी, फंड आदि के लगभग १० लाख रू. प्राप्त हुए। हमारे पुत्र राकेश के एक मित्र जो बाद में मेरे भी निकट हुए, वे मुझे वह मेरे पुत्र के कारण पितातुल्य मानने का दिखावा करते रहे। वे थे श्री नेथानी (जो शास्त्रीजी के नाम से प्रसिद्ध थे) । गुरूनानक हिन्दी स्कूल में संस्कृत के अध्यापक 1 थे। अध्यापकी से अधिक वे बाहरी धंधे अधिक करते थे। कैसे जल्दी लखपति बनें यही उनकी फितरत रहती थी। ! अनेको वीसियाँ बनाईं ( वीसी अर्थात् कुछ लोग मिलकर प्रतिमाह एक निश्चित राशि तय करते हैं। फिर उस राशि को लेने की डाक बोली जाती है। जो सबसे अधिक बोली बोलता है उसे वह राशि बोली के पैसे काटकर
दे दी जाती है। बोली की राशि शेष सभी सदस्यों में बँटती है। अंत तक बोली न बोलने वाले को पूरी रकम मिल ! जाती है। वास्तव में यह एक अनधिकृत कॉ. ओ. बैंकींग सेवा थी । २०-२५ व्यक्तियों में से प्रतिमाह एक व्यक्ति
की आवश्यकता की राशि जुटाते रहते हैं ।) शास्त्रीजी ऐसी अनेक वीसियाँ चलाते और बहुत जल्द उठा लेते। इस 1 प्रकार उन्होंने लाखों रूपया उठा लिए। मैंने भी अपने पुत्र से कहने से दो शेयर खरीदे। मुझे पैसो की जरूरत नहीं । होती थी अतः अंतिम समय तक उसे नहीं उठाता था । वीसी को अभी लगभग दो माह बाकी थे, इन दो बीसियों
लगभग दो लाख रू. मुझे मिलने थे तदुपरांत वे ३ लाख रू. नकद उधार ले गये, संबंधों के कारण ऐसा लेनदेन चलता रहता था। अतः हमने उनसे कोई लिखा-पढ़ी नहीं की। मेरी तरह कई लोगों के पैसे उनके पास जमा ! थे। उन्होंने एक के डबल कर देने की लालच में भी खूब पैसे बटौरे थे। लगभग ५०-६० लाख रू. की राशि ! डकार चुके थे। इस पैसे से उन्होंने मकान, शेड, दुकान, गहने, विकासपत्र आदि खरीद लिये थे । लड़के-लड़की
शादी भी कर ली थी। किसी के पैसे नहीं दे रहे थे, माँगने वाले रोज़ माँग रहे थे सो एकदिन उन्होंने जहर खा लिया। हमने उन्हें बचाया पर अब वे पूरे बेशरम हो गये थे। किसी का भी पैसा देने की बात ही नहीं करते थे । । उल्टे पुलिस में लिखा दिया की पैसे माँगने वालों के त्रास से मैंने ऐसा किया था। साथ ही ऐसे ही क्रिमिनल दिमाग
कील का साथ ले लिया। माँगने वाले इससे डरने लगे। किसी प्रकार उन्होंने हमारे पुत्र से भी ३ लाख रू. लिये थे यह बाद में हमें पता चला। उनके द्वारा हमको ८-९ लाख रू. की चपत पड़ी। कुछ लिखा पढ़ी न होने से हम क्या करते ?'
चूँकि यह राशि परोक्ष रूप से मैंने अपने पुत्र के कारण ही दी थी। अब क्या करें ? समस्या थी। पर उस समय 1 मुझे ऐसी प्रेरणा मिली की मैंने तुरंत निर्णय लिया कि पुत्र से कुछ नहीं कहना। यदि मैं उससे विवाद करूँगा और ! वह भी कुछ कर बैठे तो? मैंने पूर्ण स्वस्थता और शांति धारण कर उल्टे उसे समझाया कि जब गाँव में डकैती के बाद अहमदाबाद आये थे तब हमारे पास क्या था? आज तो बहुत कुछ है। हो सकता है हमें उसके पूर्व जन्म का कुछ देना हो सो वे ले गया। धर्म की इस भावनाने मुझे व परिवार को शक्ति दी और जैसे हम उस बात को भूल । गये। मुझे लगा कि ८ लाख रू. में यह शिक्षा मिल गई की लेन-देन में सभी कुछ कानूनी ढंग से करना चाहिये । ! मैं मानता हूँ कि व्यक्ति की परीक्षा और धर्म की महत्ता ऐसे समय ही समझ में आती है।
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३) आनंद में शोक
मेरे बड़े पुत्र डॉ. राकेश की बारात सागर गई थी। हमने लोगों का कहा न मानकर अपनी होशियारी और ।