Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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1611 समस्यायें, विद्यार्थियों की समस्यायें व अपेक्षाओं का चित्रण प्रस्तुत करते हुए भारत में और विश्व में शिक्षण के स्तर के लेखों और समाचारों को स्थान दिया जाने लगा। लगभग दो वर्ष तक यह पत्र चला। आर्थिक बोझ बढ़ने से परेशानियां बढ़ीं। आखिर एक शिक्षण विशेषांक प्रकाशित कर विज्ञापन आदि द्वारा थोड़ा आर्थिक बोझ घटाया पर पत्रिका बंद करनी पड़ी।
भावनगर में लेखन कार्य __ भावनगर ने मुझे धार्मिक भावनाओं से सभर बनाया तो लेखन की ओर भी विशेष प्रवृत्त किया। जैसाकि मैं पहले लिख चुका हूँ सन् १९८१ में मेरी रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन हुआ था। तीन महिने तक बिस्तर पर मजबूरन पड़ा रहना पड़ा। उस दौरान बड़ी मायूसी लगती थी। चूँकि होस्टेल में रेक्टर था अतः विद्यार्थियों की चहल-पहल रहती थी। अनेक विद्यार्थी सेवा कार्य में प्रस्तुत रहते थे। मेरी पत्नी मुझे प्रतिदिन भक्तामर का पाठ सुनाती। मेरी श्रद्धा भक्तामर की ओर वृद्धिंगत हुई। मैंने उसी दौरान भक्तामर के श्लोक पूरी तरह रट लिये। चूँकि इससे पूर्व सचित्र भक्तामर के संपादन में आ. कमलकुमारजी कुमुद एवं श्री पं. फूलचंदजी पुष्पेन्दु खुरईवालों के साथ काम कर चुका था। उस समय एक संशोधक की दृष्टि थी पर श्रद्धा का जागरण यह ऑपरेशन बना। मैंने भक्तामर पर सार्थ टीकायें और रचनायें पढ़ीं और मेरी संपूर्ण श्रद्धा भक्तिभाव से इस स्तोत्र पर दृढ़ हुई। ____ उसी समय मैंने विद्यार्थियों को बैठाकर गुजराती में 'जैन आराधना नी वैज्ञानिकता' पुस्तक का लेखन कार्य कराया। इसमें जैनधर्म के तत्वों एवं क्रियाओं का शास्त्रीय, आगमिक लेखन प्रस्तुत किया। आनंद की बात तो यह थी कि तपागच्छ के आचार्य विजयमेरूप्रभसूरीजीने इसकी भूमिका में आशीर्वाद के दो शब्द लिखे और मेरी अस्वस्थता में मेरी अनुपस्थिति में इसका लोकार्पण उन्हीं के आशीर्वाद के साथ हुआ। मेरी पुस्तक का इन साधु भगवंत द्वारा विमोचन स्वयं जैनधर्म की समन्वयात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक था। इसी बिमारी के दौरान 'मुक्ति का आनंद' निबंध संग्रह का गुजराती अनुवाद भी किया। बाद में यह पुस्तक हिन्दी में 'जैनधर्म, सिद्धांत और आराधना' के नाम से प्रकाशित हुई। इस बीमारी में जहाँ यह लाभ हुआ वहीं एक बड़ा नुकसान भी हुआ। मैंने जैनमित्र के वयोवृद्ध संपादक स्व. श्री मूलचंदजी कापड़िया सूरत वालों का अभिनंदन ग्रंथ अकेले तैयार किया था । उसका विमोचन सन् १९८२ में श्रवणबेलगोला में मस्तकाभिषेक के अवसर पर पू. आ. श्री विद्यानंदजी के तत्त्वावधान में एवं भट्टारक श्री चारूकीर्तिजी के सानिध्य में हुआ था। मैं आमंत्रित था पर जिसदिन मस्तकाभिषेक हो रहा था-पुस्तक का विमोचन हो रहा था- उस समय मैं अस्पताल के बिछौने पर मात्र कल्पना ही कर सकता । था- यह टीस मुझे जीवनभर रही। ___ भावनगर के १६ वर्ष के कार्यकाल में मेरी हिन्दी साहित्य की रचनायें राष्ट्रीय कवि दिनकर और उनकी काव्यकला (मेरा शोध प्रबंध), टूटते संकल्प (कहानी संग्रह), कठपुतली का शोर (काव्य संग्रह) प्रकाशित हुए, तो साथ ही कहानी संग्रह का संपादन 'इकाईयाँ और परछाईयाँ' का प्रकाशन हुआ। डॉ. मजीठियाजी के साथ The Directory of Gujarat का सह संपादन भी किया।
इसी दौरान जैनधर्म सबंधी जैनाराधना की वैज्ञानिकता, जैनधर्म सिद्धांत और आराधना, मुक्ति का आनंद (निबंध), मृत्यु महोत्सव (निबंध), मृत्युंजयी केवली राम (उपन्यास), ज्योतिर्धरा एवं परिषहजयी (कहानीसंग्रह) प्रकाशित हुए। मेरी यह लेखन प्रवृत्ति आगे बढ़ती रही। मेरे इस लेखन की प्रेरणा में गुजराती के साक्षर डॉ. रमणलाल ची. शाह का विशेष योगदान रहा।
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