Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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अमाव वर्ष एवं सफलता की कहानी
1631 जैसे महान विद्वान वहाँ थे। इससे पूर्व मैंने कभी पू. आचार्य विद्यासागरजी के दर्शन नहीं किये। और वे भी उस समय इतने प्रसिद्ध नहीं थे। मैंने आचार्य श्री को केस का पूरा वर्णन कह सुनाया। उन्होंने अपनी आदत के अनुसार विद्वानों से मिलने को कहा। मैं विद्वानों से मिला। पं. कैलाशचंदजी ने सलाह दी कि- 'उन्हें सिद्ध करने दो कि २५वाँ तीर्थंकर होता है।' मैंने कहा पंडितजी जो केस दायर करता है उसे सिद्ध करना होता है, पर वे इधर-उधर
का समझाने लगे। वे सोनगढ़ के प्रति स्नेहभाव रखते थे ऐसा सुना था। उनकी बातें सुनकर मैंने कहा 'पंडितजी ! आपने जैनदर्शन में बड़ी उपाधियाँ प्राप्त की हैं। पर कानून में नहीं। मैंने कानून पढ़ा है यदि मैं हार गया तो यही
कहूँगा कि विद्वानों ने मेरा साथ नहीं दिया।' इतना कहकर मैं लौट आया। ___उसी समय हस्तिनापुर में पंचकल्याणक था। पहली बार पू. ग. ज्ञानमतीजी से परिचय हुआ। हम कोर्ट में रिविज़न में कुछ प्राप्त कर सके थे। वहाँ हस्तिनापुर में मैंने ५ मिनट अपनी बात कहने के लिये समय माँगा। मुझे समय दिया गया। केस की प्रस्तुति की और लोगों ने मुझे ४५ मिनट तक सुना। मैंने चादर बिछाकर सबसे कहा कि इस पर चारआने-आठाने या एक रूपया चंदा के रूप में डाल दें। कईं श्रेष्टियों ने कहा कि आपको जितना पैसा चाहिए वह मिल जायेगगा ऐसा चंदा क्यों? मैंने कहा- 'मुझे पैसो की जरूरत नहीं है पर सबको यह लगना चाहिए कि वे भी इस यज्ञ में समिधा डालकर सहभागी बन रहे हैं। बाद में शास्त्रि परिषद के विद्वानों ने सहायता
की। दिल्ली के वकील श्री भारतभूषण जी का सहयोग मिला। ____ मैं सिद्धान्त के लिए यह लड़ाई लड़ा था। मेरा कभी व्यक्तिगत राग-द्वेष नहीं था। यही कारण है कि कोर्ट में | लड़ने के बावजूद श्री शशिभाई, श्री हीरालालजी काला, श्री माणेकचंदजी काला से सदैव सामाजिक प्रेम के संबंध
रहे। आज भी श्री रतनचंदजी भारिल्ल एवं श्री हुकुमचंदजी भारिल्ल से अच्छे संबंध हैं। मैं स्पष्ट मानता हूँ कि सिद्धान्त अपनी जगह है, सामाजिक और पारिवारिक संबंध अपनी जगह। उनमें कभी गड़बड़ नहीं करनी चाहिए। ।
प्रथम विदेश यात्रा
भावनगर के कारण ही विश्व स्तर पर प्रसिद्धि प्राप्त हुई। सन् १९८९-९० में इग्लैण्ड के एक शहर लेसेस्टर में नवनिर्मित विशाल मंदिर की प्रतिष्ठा थी। उसके कर्ता-धर्ता डॉ. श्री नटुभाई भावनगर पधारे। उन्हें एक-दो विद्वान कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी। उन्होंने भावनगर के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता श्री मनुभाई सेठ को आमंत्रित किया। उन्होंने दूसरे व्यक्ति के रूप में किसे बुलायें यह मनुभाई से पूछा, तो मनुभाईजी ने विद्यालय के नाते मेरा नाम सुझाया। बात बन गई और प्रथमबार मुझे इंग्लैण्ड जाने का अवसर प्राप्त हुआ।
इग्लैण्ड जाने की खुशी अवर्णनीय थी। पहली बार लगा कोई स्वप्न देख रहा हूँ। जिस व्यक्ति को बंबई दिल्ली जाने में ही रोमांच होता हो उसे लंदन जाने का अवसर मिले तो उसका दिल बल्लियों उछलने लगेगा- यह । स्वाभाविक है। नियत दिन और समय पर हमलोग बंबई पहुँचे। विज़ा क्या होता है यह सब मालूम ही नहीं था। पर । श्री मनुभाई सेठने इग्लैण्ड के दूतावास में इन्टरव्यू करवाया और विज़ा बनवाया। सिंगल एन्ट्री विज़ा था। छह महिने । के लिए। इतनी दूर की प्रथम उड़ान थी। एक नया अनुभव था। वास्तव में विमान में बैठना ही पहलीबार सीखा। । पूरे प्लेन में पूर्ण शांति, सभी अपने में खोये। ऐयर होस्टेस (पुरूष और स्त्री) दोनों का आकर्षक व्यक्तित्व। सरल . व्यवहार अच्छा लग रहा था। चूँकि वहाँ हर प्रकार का भोजन और पेय उपलब्ध थे। पर मैंने धर्म भावना के कारण । डिब्बे में बंद पेय लिया। भोजन में अपना ले गया था। बंबई का इन्टरनेशनल हवाई अड्डा पहलीबार देखा था।। रात्रि के २ बजे की उड़ान थी। पूरा हवाई अड्डा रोशनी में नहा रहा था और मैं अंतर की प्रसन्नता से। ७ घंटे ।