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सफलताक
1571 । जाने का, हिन्दी के अभ्यासक्रम को अधिक लोकोपयोगी बनाने का अवसर भी मिला।
सौराष्ट्र युनिवर्सिटी की स्थापना १९६५-६६ में हुई। जिसका मुख्यालय राजकोट था। परंतु भावनगर के विरोध आंदोलन आदि के कारण युनिवर्सिटी के दो कार्यालय किये गये। शैक्षणिक विभागों का भी बँटवारा हुआ कुलपति राजकोट में होते थे तो उपकुलपति भावनगर में। यह व्यवस्था कुछ वर्षों तक चली और बाद में भावनगर युनिवर्सिटी को स्वतंत्र युनिवर्सिटी का दर्जा प्राप्त हुआ।
आचार्य पद __ इधर आचार्य तख्तसिंहजी परमार जिन्हें शामलदास कॉलेज में ही आचार्यपद प्राप्त हो गया। हमारी कॉलेज में यह स्थान रिक्त हुआ। मेरी स्वयं की और पूरे अध्यापक खंड की यह भावना थी कि मुझे प्राचार्य पद दियाजाय। परंतु मैनेजमेन्ट और सविशेष व्यवस्थामंडल के एक मंत्री, जो गुजरात के विधायक थे.... वे नहीं चाहते थे कि मैं प्राचार्य बनूँ। अतः मुझसे जुनियर कम योग्यता वाले बाहर के एक प्राध्यापक श्री पंड्याजी को आचार्य पद पर नियुक्त किया। वे युवा थे पर अनुभव की कमी थी। जब उन्होंने जोश में आकर सौराष्ट्र के लोगों को ही भलाबुरा कहा तो बात और बिगड़ गई। आखिर एकवर्ष के बाद ही वे त्यागपत्र देकर चले गये। पुनः आचार्य पद का स्थान रिक्त हुआ। चूँकि पंड्या साहब की निष्फलता, विद्यार्थियों में असंतोष और उसके कारण जो वातावरण बना उसके कारण इसबार मैं सर्वानुमति से आचार्य पद पर पसंदगी प्राप्त कर सका।
यद्यपि मैं इससे एकवर्ष पूर्व स्थानिक कापड़िया महिला कॉलेज में एकवर्ष के लियन पर प्राचार्य के रूप में कार्य करने लगा था। जून १९८० में अपनी ही कॉलेज में आचार्य पद पर नियुक्त हुआ। प्राचार्य पद पर नियुक्त तो हुआ परंतु गृहदशा ठीक न होने से मुझे रीढ़ की हड्डी की अतिशय वेदना ने जकड़ लिया। अनेक दवाएँ करानी पड़ी। पर परेशानी और दर्द बढ़ता ही गया। नया-नया आचार्य का पद और इस बीमारी के कारण कार्य में विघ्न
और समस्याएँ बढ़ गई। परंतु मैनेजमेन्ट अध्यापक खंड और विद्यार्थियों के सहयोग से कार्य सुचारू रूप से चलता रहा। किसी तरह डेढ़ वर्ष पूरा गुजरा और फरवरि १९८१ में रीढ़ की हड्डी में दरार पड़ने से असह्य स्थिति होने पर तुरंत अस्पताल में दाखिल कराना पड़ा और ऑपरेशन किया गया। पूरे तीन महिने बिस्तर पर पड़ा रहा। मेरे इस पूरे इलाज और ऑपरेशन में मेरे रोटेरीयन मित्र डॉ. श्री वीरडियाजी ने जो मदद की थी- आजीवन स्मरण रहेगी। डॉ. वीरडिया डबल एम.एस. थे। सर तख्तसिंहजी अस्पताल में ओर्थोपेडिक सर्जन थे। युवा और हँसमुख तथा परोपकार की भावना से भरे हुए थे। उन्होंने मेरा ऑपरेशन किया, मानो मुझे नया जीवन ही प्रदान किया। कॉलेज की गतिविधियाँ अपने ढंग से चलती रहीं। नये उत्साह में अनेक कार्यक्रम होते रहे। भावनगर युनिर्विसिटी में प्राचार्य पद की दृष्टि से सेनेट का सदस्य भी बन गया। डॉ. मजीठियाजी के पश्चात छह वर्ष तक हिन्दी अभ्यास समिति का चैयरमेन भी रहा तो तीन वर्ष के लिए एकेडेमिक काउन्सिल में निर्वाचित सदस्य के रूप में भी काम किया।
शिक्षण संस्थाओं में राजनीति का प्रवेश हो गया था। अध्यापकों में स्पष्ट रूप से दो विभाग हो गये थे। हमारी युनिवर्सिटी और कॉलेज में भी ऐसा ही माहौल था। मैं भी एक धड़े का पक्षधर नेता था। युनिवर्सिटी और कोलेज स्तर पर चलनेवाली उठक-पटक में हमारा पक्ष संख्या और शक्ति की दृष्टि से मजबूत था। स्थानिक युनिवर्सिटी होने से हम लोग अध्यापन के पश्चात इसी में उलझे रहते थे। अनेक स्थानों पर विजय भी प्राप्त हुई। लगता था तीन घंटे कॉलेज में अध्यापन करने के पश्चात पूरे दिन हमारे पास कोई काम ही नहीं। शाम का वक्त इसी उधेड़बुन में व्यतीत होता था। इससे समर्थकों और विरोधियों की होड़ सी लगी रहती थी।