Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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स्मृतियों के वातायन से
और एकेडेमिक चर्चा ही होती। पीरज़ादाजी आजीवन अपरणित रहे। हाँ! उनकी अम्मी जान सबका ध्यान रखतीं । सबको खाना खिलातीं । पीरज़ादाजी के यहाँ कभी माँसाहार तो क्या अंडा भी नहीं आता । यदि उन्हें खाना भी होता तो अहमदाबाद चले जाते। उनके साथ तीन वर्ष काम किया पर कभी लगा ही नहीं कि नौकरी की है।
इधर प्रिन्सिपाल त्रिपाठीजी के मन में यह गलतफहमी भर दी गई ( उनके एक-दो चमचों द्वारा) कि श्री जैन आचार्य बनना चाहते हैं। जबकि यह बात पूर्ण तथ्यहीन थी । मैंने तो ऐसा सोचा भी नहीं था । अध्यापकों के हि के आंदोलन में सक्रिय अवश्य था । उनकी फालतू बाते नहीं मानता था । लगभग ८० प्रतिशत स्टाफ मेरे साथ था। इधर वेतन नहीं मिलता था। कुछ अध्यापक अनुभव के लिए निःशुल्क सेवा देते थे। ऐसे अध्यापक लाइब्रेरी की कीमती पुस्तकें ले गये और फिर कभी नहीं लौटाईं । समस्या कठिन थी।
प्रिन्सिपल पीरज़ादाजीने मुझे ढाँढस बँधाते हुए कहा 'चिंता मत करो तुम्हे तीन दिन के २५० रू. मासिक कसे मिलेगे व तीन दिन कड़ी में मेरे मित्र प्रिन्सिपल जोषी के यहाँ नियुक्ति दिलवाकर २५० रू. महिना वहाँ से दिलवा दूँगा ।' उसी समय एक बहुत ही शुभेच्छु राज्य के मंत्री श्री जो अच्छे मार्गदर्शक थे उन्होंने व कुछ स्कूल चलानेवाले मित्रों ने सलाह दी कि एक हाईस्कूल खोल दो। एक-दो वर्ष में ग्रांट भी मिलेगी। अभी अध्यापक भी सेवाभाव से मिलेंगे। पर मेरा मन दो कारणों से नहीं माना। एक तो इतना पैसा नहीं था कि स्कूल के लिए मकान, फर्निचर और स्टेशनरी खरीद सकूँ, दूसरे मैं खोखरा की अर्चना स्कूल में भ्रष्टाचार को देख चुका था जहाँ अध्यापकों की नियुक्ति के लिए पैसे लिए जाते थे। मैं मानता था और मानता हूँ कि स्कूल या शिक्षण संस्था सरस्वती के मंदिर होते हैं। यह सिद्धांत मैं अंत तक पकड़े रहा और कॉलेज के आचार्य पद पर पहुँचकर भी उसका निर्वाह करता रहा।
पी-एच. डी. करने की ललक
पी-एच. डी. करने का मन बन चुका था। क्योंकि मेरे मित्र भाई डॉ. रामकुमार गुप्त एवं भाई श्री महावीरसिंह । चौहान आदि पी-एच. डी. कर चुके थे। मैं भी इसी चाहत को मन में लेकर भाई रामकुमारजी के साथ डॉ. श्री अंबाशंकरजी नागर से मिला। श्री नागरजी उस समय गुजरात युनिवर्सिटी में हिन्दी विभाग में रीडर विभागाध्यक्ष थे। जिनके निर्देशन में डॉ. रामकुमार, डॉ. भँवरलाल जोषी, डॉ. अरविंद जोषी आदि पी-एच. डी. कर चुके थे। मैं भी उन्हीं के मार्गदर्शन में पी-एच. डी. करना चाहता था। भाई रामकुमारजी गुप्त पूरी कोशिश कर रहे थे। डॉ. अंबाशंकरजी नागर ना-नुकुर कर रहे थे। पर मेरी दृढता देखकर आखिर १९६५ में उन्होंने स्वीकृति दी। मैंने अनेक विषयों के बारे में सोचा। उसमें 'वृंदावन लाल वर्मा एवं कन्हैयालाल मुन्शी के ऐतिहासिक उपन्यासों का तुलनात्मक अध्ययन' पर विशेष चिंतन किया। उस समय दोनों महानुभाव जीवित थे। दोनों को पत्र लिखे। संमति भी प्राप्त की। पर तुलनात्मक अध्ययन का निष्कर्ष तटस्थता में बाधक भी हो सकता है और अन्य लोगों की दृष्टि में पूर्वाग्रहयुक्त भी । अतः विषय पर पुनः विचार करना पड़ा।
उस समय राष्ट्रीय कवि श्री दिनकरजी की प्रतिष्ठा का सूर्य तप रहा था। उनकी रचनायें जोश भर रहीं थीं । उनका उवर्शी के काव्य सौंदर्य से पूरा साहित्य जगह अभिभूत था । मैंने विचार किया कि दिनकरजी पर ही शोधकार्य किया जाय । श्री नागरजी के समक्ष विचार रखा। वे भी सहमत व संतुष्ट थे। कविश्री दिनकरजी पर समीक्षात्मक पुस्तकें तो प्रकाशित हुई थीं पर शोधकार्य नहीं हुआ था । अतः हमने 'राष्ट्रीय कवि दिनकर और उनकी काव्यकला' विषय तय करके गुजरात युनिवर्सिटी में आवेदन प्रस्तुत किया। उस समय कुलपति श्री
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