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एत सफलता की कहानी
1471 उमाशंकरजी जोषी ने यह प्रश्न भी खड़ा किया कि जीवित व्यक्ति पर संशोधन बराबर नहीं- योग्य नहीं। पर | हमने कई उदाहरण प्रस्तुत किए। डॉ. नागरजीने भी उन्हें अपने ढंग से समझाया और विषय तय हो गया। ___ सन् १९६५ में रजिस्ट्रेशन हो गया। इधर अब पी-एच.डी. करने का उत्साह- उधर नौकरी का संघर्ष। रजिस्ट्रेशन कराया तब राजकोट में था। पूरा अध्ययन किया जब सूरत में था। लेखन कार्य भी वहीं प्रारंभ हो चुका था। डॉ. नागरजी काम कराने में बड़े ही कठोर रहते। वे एक भी पंक्ति ऐसी नहीं चलाते जो उपयोगी न हो। आश्चर्य तो यह है कि मेरी थीसिस पूरी होते होते उन्होंने लगभग ४०० पृष्ठ रिजेक्ट किये। पुनर्लेखन करना पड़ा। पर मैं कभी हताश नहीं हुआ। पूरे श्रम से कार्य करता रहा। १९६८ में अहमदाबाद आया। गिरधरनगर कॉलेज की समस्या थी पर मैंने उस समय इस समस्या से अधिक महत्व अपने शोधकार्य को दिया। और १९६८-६९ के डेढ़ वर्ष के समय में थीसिस का कार्य पूर्ण किया। वल्लभविद्यानगर में टाईप कराया और युनिवर्सिटी में थीसिस प्रस्तुत की। एक बड़े बोझ से मुक्ति मिली। इधर थीसिस का कार्य तो पूरा हुआ पर उधर कोलेज की बिगड़ती हुई स्थिति में आजीविका का प्रश्न मुँह बाये खड़ा था। ____ मेरी थीसिस के परीक्षक थे बंबई की के.सी. कॉलेज के विभागाध्यक्ष डॉ. श्री सी.एल. प्रभात एवं अलीगढ़ | मुस्लिम युनिवर्सिटी के विभागाध्यक्ष डॉ. श्री हरवंशलाल शर्मा। डॉ. नागरजी ने अंत तक इनके नाम नहीं बताये।
मौखिकी (वायवा) के दिन ही महानुभावों का पता चला। डॉ. हरवंशलालजी मौखिकी लेने आये। बड़ा डर लग रहा । था। डॉ. हरवंशलालजी इस वयोवृद्ध उम्र में भी आँखो में सुरमा लगाते-व्रजभाषा की लहक उनकी हर बात और । व्यवहार में टपकती। उन्होंने दिनकरजी पर अनेक प्रश्न किए। मैंने उत्तर दिए। एक प्रश्न उनका भाषा और छंद | को लेकर था। मैं उनके विचारों से सहमत नहीं हुआ और मैंने उनसे स्पष्ट कहा 'सर थीसिस मैंने लिखी है, मैंने दिनकरजी की कृतियों को आद्योपान्त पढ़ा है। अतः मेरे निष्कर्ष ही सही हैं। इस बात से नाराज़ होने के बदले । मेरी दृढ़ता पर वे प्रसन्न हुए और यह कहकर कि 'तुमतो नागर जी के गोदी पुत्र हो।' मुझे सफल घोषित किया। ! उस दिन शाम को पार्टी भी डॉ. नागरजी ने दी। अपने विद्यार्थी की सफलता पर वे वैसे ही प्रसन्न होते जैसे बेटे की सफलता पर पिता खुश होता है। खैर! १९६९ में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त हो गई। डॉ. लिखने की महत्वाकांक्षा पूरी हो गई। इस डिग्री से कॉलेज के अनेक द्वार भी खुले। हिन्दू-मुस्लिम दंगे
१९६९ का वर्ष अहमदाबाद के लिए बड़ा अशुभ था। इसबार कोमी दंगे बहुत बड़े पैमाने पर हुए थे। करोड़ों ! की संपत्ति व सेंकड़ो लोग मरे थे। उस समय हम नागौरी चॉल में ही रहते थे। लोगों की पशुता व बहशीपन इतना । बढ़ा कि दोनों कोमो के लोगो ने एक-दूसरे को जिंदा जला दिया। जलती आग में जिंदा आदमी को फैंककर जला । देने की घटना हमने शराफ चॉल और भीखाभाई चाल के तिराहे पर देखी। ऐसी रोंगटे खड़े कर देनेवाली घटना को देखकर मन महिनों तक खिन्न रहा। आदमी इतना राक्षस हो सकता है उसकी कल्पना करना भी मुश्किल था। ! किसी तरह उसी समय की एक घटना आज भी स्मृति पटल पर बार-बार ताज़ी हो जाती है। ___ हम लोगों का घर रोड़ पर था। सामने ही गोमतीपुर पुलिस स्टेशन था। एक मुस्लिम दंपत्ति अपने छोटे बच्चे। के साथ जो उसकी पत्नी की गोदी में था उसे लेकर जल्दी-जल्दी भयभीत होकर लगभग भाग रहे थे कि उसी । समय पुलिस स्टेशन से २०० मीटर पूर्व कुछ दंगाईयों ने उन्हें घेर लिया। पुरुष बिचारा गिड़गिड़ा रहा था। लोग । उसे मार रहे थे, पत्नी लाचार थी। लोग तो जैसे उन तीनों को काटकर फेंक देने को पागल थे। वह महिला बच्चे