Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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अभाव संघर्षी एवं सफलता की कहानी
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का प्रश्न खड़ा रहा। किसी तरह दो वर्ष गाड़ी चली। संस्था को नियमानुसार ग्रांट भी मिली। पर आर्थिक परेशानी बढ़ने लगी। हमलोगों ने संख्या के लिए सभी प्रयत्न किए। पढ़ाने के उपरांत संख्या जुटाने में स्कूलो में घूमते । स्कूलों में जाकर आचार्य और अध्यापकों को समझाना पड़ता । कभी-कभी तो विद्यार्थियों से कहना पड़ता कि दस विद्यार्थी लाने वाले विद्यार्थी को एक फ्री एडमीशन दिया जायेगा। कैसी करूण परिस्थिति !
प्रायः सभी मुख्य डिपार्टमेन्ट चल रहे थे। पर संख्या का प्रश्न जटिल था। आर्थिक स्थिति बिगडती जा रही थी । कुछ अध्यापक अन्य कॉलेजो में जगह प्राप्त करने में सफल हो गये। संचालक भी पैसा देने में आना-कानी कर रहे थे। हालत तीसरे वर्ष तो यह हुई कि थोड़ी भी फीस आती तो सभी बाँटने को दौड़ते । ग्रांट आती तो किसी तरह थोड़ी-बहुत पूर्ति होती । सभी असंतुष्ट थे- परेशान थे। मैं सोचता कि सूरत छोड़कर बड़ी गलती की। एन.सी.सी. का काम भी छूट गया था। जब संचालको ने कॉलेज बंद करने का निर्णय लिया तो हम लोगो ने ! आंदोलन किया। गवर्नर के सामने धरने दिये । युनिवर्सिटी से मध्यस्थता करने की माँग की। कॉलेज हम अध्यापक चलायेंगे ऐसा प्रस्ताव भी रखा। सभीने सहानुभूति तो बताई पर ठोस मदद नहीं मिली। उल्टे गवर्नर के यहाँ धरने पर बैठने के कारण हम लोगों के फोटो दैनिक अखबार में छपे सो अन्य कोई भी कॉलेज आंदोलनकारी मानकर लेने के लिए तैयार नहीं था । समस्या विकराल होती जा रही थी ।
चूँकि मैं १९७० से धंधुका कॉलेज में पी.जी. की कक्षायें लेने जाता था । अतः वहाँ के आचार्य श्री पीरजादा से अच्छा परिचय था। वे उस समय युनिवर्सिटी में विशेष प्रभाव रखते थे। हमने सारा प्रश्न श्री पीरजादाजी के सामने रखा। उन्होंने कहा कि हम कॉलेज ले लेंगे। नया भवन भी बनायेंगे। पूरे स्टाफ को रक्षण देंगे पर आचार्य हमारा होगा । हम श्री त्रिपाठीजी को जो वेतन है, वह देंगे पर वे उपाचार्य के पद पर रहें। यह बात श्री त्रिपाठीजी को मंजूर नहीं थी । वे तो कहते थें कि मैं जाऊँगा पर सबको ले जाऊँगा (हम तो डूबेंगे ही पर तुमको भी ले डूबेंगे ) । । इस कारण श्री पीरजादाजी ने प्रस्ताव वापिस ले लिया।
गिरधरनगर कॉलेज की खश्ता हालत- बंद होने के कगार पर १९७२ में बंद भी हो गई। मैं जीवन में संघर्ष करते हुए पार्ट टाईम धंधुका कॉलेज में अनुस्नातक कक्षा को पढ़ाने जाता । पाँच दिन भवन्स कॉलेज डाकोर में जाता। आ. श्री पीरजादा अर्थशास्त्र के विद्वान प्राध्यापक थे । अत्यंत कुशल और स्टाफ साथ आत्मीयता के साथ काम करते। उन्हें अर्थशास्त्र के साथ साहित्य में भी रूचि थी । मेरे इन्टरव्यू में बात निकली 'भोगा हुआ सत्य' । उन दिनों साहित्य में नवप्रयोगवाद आदि विचारधारायें चल रही थीं। यह 'भोगा हुआ सत्य' भी अपनी रट लगाये हुए था। पीरज़ादा साहबने यह सब पढ़ा होगा। सो बार - बार 'भोगा हुआ सत्य' ही सर्जनात्मक साहित्य होता है वगैरह... वगैरह... पूछते रहे। मैं भी तीन चार बार सुनकर अपनी पर आ गया और मैंने पूछा 'सर! मुझे आपके यहाँ कोई प्रेमकाव्य पढ़ाना हो तो क्या पहले किसी लड़की से प्रेम करना पड़ेगा ? अन्यथा प्रेम के सत्य को कैसे समझाऊँग।' इससे वे नरम पड़े और बड़ी सद्भावना से नियुक्ति की ।
पीरज़ादा साहब यद्यपि जन्म से मुसलमान, पर उनके संस्कार किसी भी उच्च कुलीन ब्राह्मण से कम नहीं। अहमदाबाद एवं गुजरात के अच्छे से अच्छे प्राध्यापकों को अधिक वेतन देकर भी बुला लेते। उन्हें यही प्यास रहती कि उनके छात्र उत्तम ज्ञान कैसे प्राप्त करें। प्रोफेसर अलघ जैसे अंतर्राष्ट्रीय विद्वान उनके यहाँ आते जो बादमें भारत सरकार के प्लानिंग कमीशन के सदस्य और केन्द्रीय मंत्री भी रहे। जितने भी प्राध्यापक धंधुका पढ़ाने आते उन्हें कॉलेज के समय का ध्यान ही नहीं रहता। क्योंकि स्वयं पीरज़ादाजी ने कभी कॉलेज में मस्टर नहीं रखा और कभी समय की चिंता की। कॉलेज ही उनका घर था और घर पर होते तो अध्यापकों का जमघट लगा रहता ।