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प्रमुख लोग थे। पर इन सबसे अधिक आत्मीय बने श्री साकेरचंदभाई सरैया जो पं. परमेष्ठीदासजी के अभिन्न मित्र थे। चूँकि मैं पं. परमेष्ठीदासजी का रिश्तेदार था। अतः सरैयाजी ने मुझे खूब स्नेह और वात्सल्य दिया। वे मेरी व घर की छोटी-छोटी समस्याओं को हल करते। मुझे पुत्रवत वात्सल्य देते। जैन समाज की सभाओं और प्रवचनों में मुझे आमंत्रित करते। ___ यहीं मेरा परिचय और प्रगाढ़ संबंध सेठ श्री मुरारीलालजी अग्रवाल दिल्लीवालों के साथ हुआ। वे कपड़े के सविशेष साड़ी के बड़े व्यापारी और निर्माता थे। सूरत टेक्सटाईल मार्केट में उनकी गद्दी थी। उनके भाई थे श्री
ओमप्रकाशजी जैन जो आज सूरत जैन समाज के अध्यक्ष हैं। श्री मुरारीलालजी मुझे बड़ी इज्जत देते। व्यापारी होते हुए भी उनकी शिक्षा में विशेष रूचि थी। दूसरों का हित करना उन्हें सुख देता था। उनके एक पुत्र प्रमोद थे। वे मुझसे कहते कि यह नौकरी छोड़ो मेरे साथ कपड़े के व्यवसाय में आओ देखो कैसे समृद्ध बनते हो। पर मेरा मन तो अध्यापन के रंग में रंग गया था। पढ़ना और लिखना ही मेरी रूचि बन गई थी।
श्री मुरारीलालजी व उनके युवा पुत्र दोनों का असमय निधन हो गया। घर की जिम्मेदारी श्री ओमप्रकाशजी व भाभीजी तथा उनकी युवा बहु ने बखूबी संभाली। वर्षों बाद दो वर्ष पूर्व उनसे मिला। सारा अतीत आँखों के समक्ष वर्तमान बन गया।
प्रथम कृति का प्रकाशन ___ यहीं सूरत में मेरी प्रथम कृति घरवाला का प्रकाशन श्री कापड़ियाजी ने किया। स्व. भगवत स्वरूपजी की व्यंग्य । कृति घरवाली का प्रकाशन होकर खूब प्रचलन हो गया था। जब मैं १९५८ में इन्टर में पढ़ता था तभी उसके
प्रत्युतर में मैंने यह १२६ चतुष्पदी का व्यंग्य काव्य लिखा था। दस वर्षों तक किसीने प्रकाशित नहीं किया पर कापड़ियाजीने प्रकाशित किया। फिर तो इसकी दसों एडिशन निकल गईं। विवाहोपलक्ष्य में यह कृति खूब बँटी। इससे एक उत्साह पैदा हुआ कि मैं लिख भी सकता हूँ और प्रकाशित भी हो सकता हूँ। कविता लिखने के बीज । तो मैट्रिक के बाद ही कवि मित्रों की संगति और श्री रमाकांतजी शर्मा की प्रेरणा से पनपने लगे थे। वैसे फिल्मी धुनों पर जैन भजन तो लिखने ही लगा था। इसप्रकार सन १९६६ से १९६८ तक सूरत में बड़ी ही इज्जत और प्रतिष्ठा से सेवा की। अहमदाबाद में आगमन सन १९६८ में अहमदाबाद में गिरधरनगर में एक आर्ट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज का प्रारंभ हुआ। गर्मी की छुट्टियों में उसके इन्टरव्यू हुए। यहाँ वेतन में वृद्धि के साथ नियुक्ति हुई। अहमदाबाद अपने घर लौटने की लालच । में इसका स्वीकार किया, और सूरत का साम्राज्य छोड़कर १५ जून १९६८ को यहाँ आ गया।
गिरधरनगर कॉलेज निम्न मध्यमवर्गीय विस्तार में था। लगता था कि यहाँ अच्छी संख्या होगी। इसके संचालक, भी एक मिल मालिक थे और आचार्य थे श्री रसिकभाई सी. त्रिपाठीजी। जिन्हें लॉ सोसायटी के कॉलेज में आचार्य पद न मिलने से वे यहाँ आये थे। वैसे यहाँ स्टाफ तो बहुत ही योग्य चुना गया था। अर्थशास्त्र में विद्वान प्रोफेसर बी.एम. मूले, मनोविज्ञान में प्रो. मनोज जानी, अंग्रेजीमें बेझन दारूवाला, गुजराती में प्रसिद्ध कवि चिनु मोदी आदि थे। परंतु कॉलेज में संख्या में आशा के अनुरूप वृद्धि न हुई। इसका कारण था कि यहाँ के लड़के नदी पार । कॉलेज में पढ़ने जाना चाहते थे। लगता था १२वीं तक इसी विस्तार में रहने के कारण वे भी मुक्त हवा में श्वास । लेना चाहते थे। फिर यहाँ मकान भी एक हाईस्कूल का पुराना था। अतः इतना अच्छा स्टाफ होने पर भी संख्या ।
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