Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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मतियों के वातायन। को बचाने उसे कभी इस कंधे, कभी उस कंधे पर चिपका लेती, कभी छाती से लगाकर छिपाती। लोगों का बहशीपन बढ़ रहा था। उस दृश्य को देखकर मेरा मन व्याकुल हो उठा। हम दो-तीन लोग दौड़कर गये और लोगों को समझाने, उनका ध्यान बटाने लगे और उस परिवार को सुरक्षित पुलिस स्टेशन पहुँचा आये। इससे हमारे धर्मरक्षक बड़े नाराज रहे। हमें जैसे हिन्दु विरोधी ही करार दे दिया। पर मुझे बड़ा आत्मसंतोष था कि तीन लोगों की जान बचा सके। खास तो उस शिशु की भोली सूरत, तटस्थ नज़र जैसे कह रही थी- 'भाई मैं क्या जानूँ हिन्दु क्या और मुसलमान क्या?' ____ उसी समय मैंने हाटकेश्वर जो हमारे नये अमराईवाड़ी के घर के पास ही है- वहाँ एक माह पूर्व ही दुकान खरीदकर फर्निचर तैयार कराके स्टेशनरी और नोवेल्टी स्टोर्स खोलने की योजना बनाई थी। वहाँ का पूरा कार्य हो चुका था। बस उद्घाटन करना था। पर इन कोमी दंगो से सबकुछ स्थगित करना पड़ा। एकदिन पुलिस रक्षण में कयूं के दौरान दुकान देखने गये। पर क्या कहें। गोमतीपुर से हाटकेश्वर तक के चार-पाँच कि.मी. के मार्ग पर थे जले घर, टूटे फूटे झोंपड़े, लूटी दुकानें और अनेक क्षत-विक्षत शव। जो घरों से झाँक भी रहे थे उनके चहरे शहमे-शहमे थे। इस दृश्य को देखकर मैं घर लौट आया। और एकमाह भगवान भरोसे दुकान छोड़कर कभी उस
ओर गया ही नहीं। ___ जहाँ हमारी उमियादेवी सोसायटी बनी थी वहीं सामने गुजरात हाउसींग बोर्ड के मकानों में कुछ मुस्लिम परिवार रहते थे। हमारे कथित हिन्दु धर्म रक्षकों ने उन सबको उन्हीं के मकान में दूँज डाला।जो बचे वे फिर कभी लौटकर नहीं आये। पूरे विस्तार पर जैसे हिन्दु धर्म की ध्वजा लहरा रही थी।
जब पूरा माहौल ठीक हुआ तब हम लोग यहाँ रहने आये और दुकान भी खोली।
दुकान तो की-बैठने भी लगा, पर लगा इसमें फँस गये हैं। महिलाओं के सौंदर्यप्रसाधन बेचना..... सबसे । बड़ा धैर्य और संयम का काम था। फिर मैं कॉलेज में नौकरी करता- उधर गिरधरनगर कॉलेज का भविष्य । अंधकारमय हो रहा था। नौकरी की अन्यत्र कोशिश करता.. सो दुकान बंद हो गई। दुकान तो जैसे-तैसे बेची पर फर्निचर व सामान दो-तीन वर्षों तक नये घर के एक कमरे में रखना पड़ा। बाद में घाटा उठाकर सामान बेचा। लगा अपने हाथ में व्यापार की रेखा ही नहीं थी। हम लोग १९७० से १९९७ तक उमियादेवी सोसायटी में रहे।
भवन्स कॉलेज- डाकोर
नये घरमें रहने आ चुके थे। पर नौकरी की नई जगह की तलाश थी। सन १९७१ में डाकोर के भवन्स कॉलेज में एक वर्ष के लिए अस्थायी जगह हुई। भाई डॉ. रामकुमार गुप्त वहाँ विभागाध्यक्ष और आर्ट्स फेकल्टी के डीन थे। उनके अपने आचार्य श्री डॉ. एल.डी. दवे से अच्छे संबंध थे। कॉलेज के अध्यक्ष थे जस्टिस श्री दीवानजी। डॉ. रामकुमार गुप्त मेरी वर्तमान कॉलेज की स्थिति से वाकिफ थे। अतः उन्होंने मुझे उस जगह के लिए साक्षात्कार हेतु बुलवाया। चूँकि पी-एच.डी. होने पर गिरधरनगर कॉलेज में हिन्दी डिपार्टमेन्ट का प्रारंभ कर मुझे व्याख्याता से प्राध्यापक के पद की उन्नति प्रदान की थी। नये ग्रेड में भी रखा था। अतः अब में प्रोफेसर से नीचे पद पर नौकरी करने को राजी नहीं था।
विशेष इन्टरव्यू
मैं भवन्स कॉलेज के इन्टरव्यू के लिए अहमदाबाद में जस्टिस दीवानजी और आचार्य दवेजी द्वारा बुलवाया । गया। मेरी योग्यता आदि देखकर दोनों संतुष्ट थे। उन्होंने कहा कि 'डॉ. रामकुमार गुप्तजी प्रोफेसर और ।