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म तियों के वातायन थी कि महिलाश्रम में पढ़नेवाली जैन संस्कारों की लड़की मिल रही है। वे श्री महावीरजी में लड़की देखने गये। पसंद ! किया। वहाँ से लौटे तो कोई स्टेशन पर उनके ही जूते पहनकर उनकी पूरी थैली लेकर चंपत हो गया। वे खाली । हाथ लौटे। इतना सब होने पर भी मुझसे तो कुछ पूछने का सवाल ही नहीं था। उन दिनों ना तो लड़कों से पूछा । जाता था और न ही लड़की देखने की छूट होती थी। मैंने प्रारंभ में हल्का सा विरोध किया। “अभी मेरी मेट्रिक 1 की परीक्षा नहीं हुई है- मैं शादी नहीं करूँगा।" यह बात मैंने बुजुर्ग श्री राजधरलालजी से कही.... पर मेरी
सुनता कौन था? शादी की तैयारियां शुरू हो गईं और फरवरी की शादी तय हो गई। वैसे मेरा ढुलमुलपना भी एवं शादी का मीठा सपना भी इसमें महत्वपूर्ण कारण थे।
बारात इन्दौर गई। उस समय ना तो रेलगाड़ी में रिजर्वेशन होते थे और हम लोग कुली करने में तो मानते ही नहीं थे। इन्दौर के लिए गाड़ी, बड़ौदा और रतलाम बदलनी पड़ती थी। लगभग ४०-५० बाराती थे। सभी सहनशील थे। अपना सामान खुद उठाते। डिब्बो में ठुसने पर बाराती होने का आनंद भी उठाते। खैर... विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह क्या था। मेरे लिए एक नई घटना थी। पिताजी मुझे बच्चा समझते थे। सो उनका आदेश पालन ही सबकुछ था। उन्होंने कहा घोड़े पर बैठ जाओ सो बैठ गये। यह कपड़ा पहन लो सो पहन लिया। उन्होंने मेरे लिए सूट सिलवाया वह भी ससुराल से आये सार्सकीन कपड़े का। पहनने नहीं दिया। क्योंकि वह उन्हें देना था लड़की वालों को द्वार पर देने के लिये। अतः वयोवृद्ध श्री सेतूलालजी के पुराने कोट को ही पहनकर संतोष मानना पड़ा। हाँ टीका के बाद अवश्य नया सूट पहिना। इसी प्रकार टीका में पाँव पखरई में जो भी रू. मिले वे पिताजी ने इसलिए ले लिये की कहीं मेरे पास से गिर न जायें। पिताजी को अपने अरमान पूरे करने थे सो महू का मिलेट्री बेंड मंगवाया। पर घोड़ा समय पर नहीं आ पाया। सो हमारे मामा श्री हीरालालजी साईकिल वाले एक तांगे की मरीयल घोड़ी ले आये उससे काम चला। बारात लौटकर आयी। नागौरी चाल के डेढ़ कमरे के मकान में । महेमान खूब थे, जगह कम थी, पर वे सब परेशानियों के बीच भी खुश थे कि उन्हें अहमदाबाद आने का मौका तो मिला।
एक बड़ी दिलचश्प घटना है। सुहाग रात भी एक नई बात थी। अनुभव रहित बात थी। चूँकि पत्नी को उनकी भाभी-बहन आदिने सिखा दिया था कि बिना भेट लिए समर्पित मत होना। जब वे ज़िद करने लगी तो हमने भी एक अंगूठी दे दी। सुबह पिताजी ने ऊँगली पर अंगूठी नहीं देखी तो समझे गुम हो गई और लगे कोटमार्शल करने। मैं कहूँ भी तो क्या कहूँ मैं चुप था। पर माँ ने आकर उन्हें समझाया तब वे शान्त हुए।
भयावह दुर्घटना विवाह के दूसरे ही दिन एक बहुत बड़ी दुर्घटना हुई। जिसकी कल्पना मात्र से सिहरन दौड़ जाती है। विवाह के दूसरे दिन प्रातः नहा-धो कर तैयार हुआ। मंडप खुल रहा था। लाईट का वायर खुला हुआ पड़ा था। मैंने सोचा इसे एक तरफ रख दूँ। बिजली और उसके प्रभाव से अनभिज्ञ था। सो उसे छूते ही तीव्रतम करंट लगा। वायर उँगली में घुस गये और मैं बेहोश होकर गिर पड़ा। मेरी माँ-बुआ सबने यह देखा। वे दौड़कर मुझे छुड़ाने लगीं। चिल्लाने लगीं पर वे भी चिपकने लगीं। तभी बगलमें रहनेवाले पंचमसिंहने यह देखा और दौड़कर जिस पनचक्की से लाईट ली थी (हमारे घर में तो लाईट थी नहीं) उसे एकदम बंद किया। तभी सब छूटे। अच्छा हुआ किसी को कोई खतरा नहीं हुआ। मैं जरुर बेहोश था। शरीर काला सा हो गया था। पूरे घर में शोक का वातावरण छा गया। पिताजी को पता चला तो धबड़ा गये। आखिर एम्ब्यूलेन्स से वाड़ीलाल होस्पीटल ले गये। पर सब नोर्मल था। यह