Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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मविपर्व सफलता की कहानी
-1351 मैं स्वयं पढ़ रहा हूँ अतः ऐसी कक्षा देकर मदद भी करते थे। ___ इसी दौरान म्यु.कोर्पोरेशन की ओर से कक्षा १ से ४ तक के विद्यार्थियों को दूध देने की योजना प्रारंभ हुई। प्रत्येक बालक को १०० ग्राम के हिसाब से दूध आता था। दूध भी बहुत अच्छा। ६-७ फेट का होता था। बच्चों को तो दूध मिलता ही था पर अध्यापक अधिक तंदुरस्त हो रहे थे। एक तपेली प्राईमस पर चढ़ी रहती और उसमें चार पाँचसो ग्राम दूध गरम होता रहता। अध्यापक बारी-बारी से जाते और स्वयं दुग्धानुपान कर पुनः तपेली में दूध डाल आते। बच्चों को ८०-९० ग्राम से अधिक दूध मिल ही नहीं पाता क्योंकि सभी अध्यापक दूध पीने के बाद दो-चार लीटर दूध जमा देते और बारी-बारी से दूसरे दिन दहीं खाकर सगुन करते। सो हमारा स्वास्थ्य भी बन रहा था और पढ़ाई के लिए दिमाग भी स्वस्थ रहता था। हम विद्यार्थियों को अपनी सेवा करने का पूरा मौका देते थे। ___एक मजेदार बात और। वार्षिक परीक्षा होती थी। हमी लोग भाग्यविधाता होते थे। बच्चों के माँ-बाप से प्रेम से पास कराई व मिठाई निःसंकोच माँग लेते थे। क्योंकि प्रेम में शरम कैसी? परीक्षा से लेकर रिज़ल्ट तक पूरा घर और कभी-कभी पड़ौसी भी मिठाई खाकर आशीष देते थे। जब पालक रिजल्ट लेने आते और उनका बच्चा पास होता तो हम लोग उसे धन्यवाद देते और बदले में दहीं की लस्सी और पेड़े खाकर आशीर्वाद भी देते। ___ इसप्रकार बी.ए. की पढ़ाई तक गाड़ी सरकती रही। और डीग्री भी प्राप्त हुई ओनर्स के साथ। इधर बी.ए. हुए उधर पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। एक साथ दो-दो खुशियाँ। पर वेतन अभी कुल ७२ रू. से बढ़कर पाँच वर्षों में ८२
रू. ही हुआ था। हम जैसे निम्न मध्यमवर्गीय लोगों के यहाँ संतान प्राप्ति भगवान की कृपा होती है और गरीबी । भाग्य का ही कारण होती है। ___हाईस्कूल
१९६१ में बी.ए. हुआ। भावना थी की अब किसी हाईस्कूल में स्थान प्राप्त करूँ। उस समय ट्रेन्ड होना । अनिवार्य नहीं था। चूँकि बी.ए. में द्वितीय श्रेणी प्राप्त की थी। स्वामिनारायण कॉलेज में हमारे विभागाध्यक्ष प्रो. लोधाजी से चर्चा की कि किसी अच्छी हाईस्कूल में जगह दिलवा दें। वे हमारे अध्यापक ही नहीं शुभचिंतक भी थे। भाग्य से स्वामिनारायण कॉलेज में ही मनोविज्ञान विभाग की अध्यक्षा थीं श्रीमती डॉ. लीलाबहन शाह। वे प्रतिष्ठित घराने से थीं। वे शहर के उत्तम महिला हाईस्कूल ‘आर.बी.एम.के. गर्ल्स हाईस्कूल' की सेक्रेटरी भी थीं। श्री लोधाजीने उनसे सिफारिश की। बहन ने मेरे प्रति सद्भाव दर्शाते हुए मुझे बिना अर्जी के ही साक्षात्कार के लिए बुलवाया। इसी स्कूल में मेरे मित्र, सहपाठी श्री जगदीश शुक्ल पहले से ही अध्यापक थे। उनका भी पूरा सहयोग था। अनेक प्रश्न आचार्या रमाबहन जानी ने पूछे और मैं सभी में उत्तीर्ण रहा। आखिर मुझे वहाँ का आदेश प्राप्त हो गया और १५ जून १९६१ में मैंने इस नई जगह पर काम करने का प्रारंभ किया। वेतन था १७७ रू. प्रति माह। ___ कन्याओं की इस हाईस्कूल में मुझे सीधे कक्षा १० का वर्गशिक्षक नियुक्त किया गया। यह अहमदाबाद की श्रेष्ठ कन्याशाला मानी जाती थी। रायपुर में अधिकांशतः उच्च वर्ग के, उच्च मध्यमवर्ग की लड़कियाँ पढ़ती थीं। प्रारंभ में मुझे बड़ा संकोच भी होता था। मेरी उम्र २३-२४ वर्ष की थी और लड़कियाँ भी १६ से १८ वर्ष की । उम्र की बीच की होती थीं। अतः कभी-कभी झेंप सी लगती। सविशेष उस समय जब कोई प्रेमगीत या कविता । या कहानी पढ़ानी हो। पर धीरे-धीरे झिझक दूर हो गई। स्कूल में मैं सबसे कम उम्र का अध्यापक था। हिन्दी अच्छी बोलता था। नाटक व कविता लिखने की की भूमिका अंतर में थी ही, अतः लड़कियों में लोकप्रिय भी । हुआ। इससे अनेक पुरानी अध्यापिकाओं के मनमें खटकने भी लगा। अनेक जैन लड़कियाँ मेरे जैन होने से !