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स्मृतियों के वातायनी अधिक वात्सल्यभाव भी रखती थीं। आचार्या रमाबहन ने अनेक ऐसे काम मुझे सौंपे जिसमें लड़कियों से अधिकाधिक संपर्क बढ़े। जैसे वार्षिक दिन पर ग्रीनरूम की ड्युटी या पर्यटन में साथ-साथ जाना वगैरह... शायद वे परोक्ष रूप से मेरा निरीक्षण ही कर रही थी। पर मैं सर्वत्र उत्तीर्ण हुआ।
कॉलेज अध्यापक ___ इसी दौरान मैं इस अध्यापन कार्य के साथ साथ एम.ए. का अध्ययन भी सेंट जेवियर्स कॉलेज में कर रहा था। १९६३ में मैं एम.ए. की परीक्षा दे चुका था। रिज़ल्ट आना बाकी था। रिज़ल्ट यथासमय आये यह जरूरी था। क्योंकि यहाँ गुजरात युनिवर्सिटी में रिज़ल्ट बड़ी देरी से आते थे और तब तक कॉलेजो में नियुक्तियाँ हो जाती थीं। अतः हम लोगों ने तत्कालीन कुलपति साक्षर श्री उमाशंकरजी जोषी के समक्ष अपने प्रश्न रखे। इसके अन्य कारण भी थे। एक तो यहाँ कॉलेजो में हिन्दी विभाग में प्रायः उत्तर भारत के प्राध्यापक थे जो विभागो में अपने रिश्तेदारों या संबंधियों को बुलाते थे। हमारी लड़ाई इस बात की थी कि यदि हिन्दी के स्थान बाहर वालों से ही भरने हैं तो हम लोगों को यहाँ हिन्दी से एम.ए. क्यों करवाते हो? गुजरात में पहले हम लोगों को मौका मिलना चाहिए। हमारी बात कलपतिजी को समझ में आई और इस वर्ष रिजल्ट कॉलेजें प्रारंभ होने से पहले घोषित हुए। ___ मेरे मनमें जब में प्राथमिक शिक्षक था तभी से यह भाव थे के कि मैं कॉलेज में प्रोफेसर बनूँ। एम.ए. की परीक्षा देने के बाद वह भाव अधिक लहलहा उठे। कॉलेज में पढ़ाना एक स्वप्न ही था। पर मेरी पहले से ही आदत रही है कि यदि कोई संकल्प करूँ तो उसे पूरा करने के हर प्रयत्न करूँ। यद्यपि अभी एम.ए. का रिजल्ट आना बाकी था, मुझे पता चला कि अमरेली सौराष्ट्र में प्रतापराय आर्ट्स कॉलेज में हिन्दी के व्याख्याता का स्थान खाली है। योग्यता में एम.ए. द्वितीय श्रेणी पास होना जरूरी था। बड़ी कश्मकश हो रही थी। तभी एक दिन विचार आया क्यों न कॉलेज के अध्यक्ष एवं मंत्रीजी से मिला जाय। पता चला कि कॉलेज के अध्यक्ष हैं गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री डॉ. जीवराज महेता। एवं मंत्री हैं तत्कालीन गुजरात राज्य सेवा आयोग के अध्यक्ष श्री राघवजीभाई लेऊवा। इतनी बड़ी हस्तियाँ उनसे मिलूँ तो कैसे मिलूँ? कोई परिचय तो था नहीं। कोई सिफारिश भी नहीं थी। फिर हम चाली में रहनेवाले निम्न मध्यमवर्गीय लोगों को जानता भी कौन था! अभी यह मानसिक परेशानी चल रही थी कि अंतर में एक स्फुरणा हुई कि चलो खुद चलकर मिलें जो होना होगा देखा जायेगा। एकदिन शाम को खोजते-खोजते श्री लेऊवाजी के सरकारी आवास पर पहुंचा। एक बुजुर्ग धोती बनियान पहने लॉन में कुर्सी पर बैठे थे। मैंने उन्हीं से पूछा 'राघवजीभाई लेऊवा साहब कौन हैं?' वे कुछ क्षण मुझे देखते रहे फिर बोले 'क्या काम है?' मैंने कहा 'काम उन्हीं से है।' तब वे बोले 'बोलो मैं ही राघवजीभाई हूँ।' मैं सकपका गया। हड़बड़ाहट में नमस्ते की और खड़ा हो गया। वे बोले 'बैठो क्या काम है?' मैंने कहा 'सर! मैंने एम.ए. की परीक्षा दी है। मैं निश्चित रूप से अच्छे अंक पाऊँगा। मैंने अमरेली कॉलेज में हिन्दी के अध्यापक के लिए आवेदन दिया है। मैं चाहता हूँ कि आप मुझे मौका दें। सर! यह भी जान लें कि मैं गरीब घर से हूँ। मेरे पास कोई परिचय भी नहीं है कि आपसे कहलवाऊँ । मेरे पास सिर्फ मेरी डिग्री होगी और मैं।" एक ही श्वास में सबकुछ बोलकर चुप हो गया। - इस दौरान वे मेरे मुख को देखकर मेरी बातें ध्यान से सुन रहे थे। बोले 'ठीक है। पर हमारे पास एम.ए. कर चुकने वाले उच्च श्रेणी वाले पास व्यक्तियों की अर्जियाँ हैं। तुम्हारा तो रिजल्ट ही नहीं आया पर कोई बात नहीं। हम इन्टरव्यू तब रखेंगे जब रिजल्ट आ जाये तो आना।' रिजल्ट आने के पश्चात मैं उनके घर पहुंचा तो उन्होंने कहा परसों शाम को आ जाना। पर मुझे चैन कहा था। मैं सुबह ही पहुंच गया। तो उन्होंने कहा 'मैंने शाम को आने को कहा है।' मैं लौट आया। मन में लगा जाने क्या होगा। शाम को उनके घर पहुंचा। वे ओफिस से आये