Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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लेऊवा मेरे अच्छे मित्र बन गये थे । वे स्वयं विधायक थे। वे भी मेरे घर आकर कभी-कभी मेरे बनाये परोठों का स्वाद लेते।
कॉलेज में सह शिक्षण था। लड़के-लड़कियाँ भी यौवन की देहरी लाँग रहे थे। मैं भी २४ - २५ वर्ष का ही था । अतः विद्यार्थियों से मैत्रिक भावना अधिक बनी । साहित्य का अध्यापक, कविता कहानी, लिखने का शौक, वाणी की वाचालता से मात्र हिन्दी विभाग में ही नहीं पूरे कॉलेज में मेरा प्रभाव बढ़ रहा था। मेरे साथ सायंस विभाग 11 में फिजिक्स के ट्यूटर श्री मौलेश मारू जो अभी २२ वर्ष के ही थे। अत्यंत खूबसूरत, आकर्षक व्यक्तित्व, संगीत के शौखीन एवं अच्छे बंसरी वादक थे । वे अविवाहित थे। अतः कन्याओं के आकर्षण के केन्द्र भी थे। हम लोग दत्त निवास में एक ही कमरे में रहते और उम्र के अनुसार लड़के-लड़कियों की बातें रूचि पूर्वक करते ।
अमरेली कॉलेज में एक बड़ी विचित्र घटना मेरे साथ घटी। जिसका आज भी चित्रवत स्मरण है। एक लड़की. दुर्गा खेतानी बड़ी ही चुलबुली .... खुबसूरत लगभग २० वर्ष की किशोरी । वह शायद सेकण्ड बी. ए. में थी । एक दिन उसे कुछ मस्ती सूझी। मेरी साईकल से वालट्यूब निकालकर हवा निकाल ली। चार बजे जब घर जाने का समय आया तो साइकल पंचर थी। परेशान था। तभी दुर्गा हँसती हुई आई और मज़ाक सा करने लगी। मैंने अनुमान लगाया कि यह कारस्तानी इसीकी है। थोड़ा डाँटकर पूछा तो उसने इस शरारत का स्वीकार किया। मैंने उससे कहा ऐसी शरारत ठीक नहीं। पर अभी भी वह मस्ती में ही थी । तब मैंने कहा 'दुर्गा जानती हो लोग क्या कहेंगे? लोग कहेंगे कि दुर्गा ने जैन साहब की साईकल की हवा क्यों निकाली..... कहीं कुछ.. .' बस वह भी गंभीर हो गई मैंने कहा ‘अब तुम्हे एक ही सजा है कि साईकल को पैदल लगभग दो फर्लांग ले जाओ और हवा भराकर लाओ।' उसने ऐसा ही किया। बात आई-गई हो गई। पर दो वर्ष मैं वहाँ रहा उससे व उसके परिवार से बड़े ही पारिवारिक संबंध रहे । दुर्गा भोली थी । खेल-कूद में सांस्कृतिक कार्यक्रमोंमें रूचिपूर्वक भाग लेती थी। 1 एकबार वह गिर पड़ी। कमर में चोट आई। मैं देखने गया तो शेंक कर रही थी। मैंने कहा 'देखा मुझे सताने का फल मिल गया ।' मेरे इस वाक्य को सुनकर इस पीड़ा में भी वह खिलखिलाकर हँस पड़ी।
मुझे कॉलेज में नाटक आदि सांस्कृतिक विभाग सौंपा गया। वार्षिकोत्सव में मैं लड़कों को तैयार कराता । युवक महोत्सव का इन्चार्ज बनाया गया और मित्रों की मदद एवं छात्र-छात्राओं के अपूर्व सहयोग से कार्यक्रम बड़ा ही सफल रहा। हम सब युवा अध्यापकों के कार्य पर बुजुर्ग अध्यापकों की नज़रे तो रहती ही थीं।
एक प्रसंग मुझे और याद है जो तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. जीवराज महेता के व्यक्तित्व से संबंधित है। एकबार डॉ. जीवराज महेता जो कॉलेज के अध्यक्ष भी थे- कॉलेज पधारे। हमारे आचार्य श्री दवे साहब अपनी कुर्सी से खड़े हो गए और श्री महेताजी को बैठने का विनय किया। डॉ. मेहता साहब बड़ी नम्रता से टेबल के सामने बैठे और कहा ‘प्रिन्सीपाल साहब यह आपकी कुर्सी है और आप यहाँ के मुखिया हैं । इस कुर्सी पर बैठने का मेरा अधिकार नहीं ।' ऐसी नम्रता और विवेक था डॉ. जीवराज महेता का ।
राजकोट में
१९६५ में राजकोट में नये कॉलेज का प्रारंभ हुआ था और उसमें हिन्दी के अध्यापक हेतु विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। अमरेली जो सौराष्ट्र से सुदूर कोने में था उसके स्थान पर राजकोट जो सौराष्ट्र की राजधानी थाविकसित औद्योगिक शहर था - वहाँ जाने का मन बनाया। मैंने अर्जी की, इन्टरव्यू हुआ और एक इजाफे के साथ पसंद भी हो गया। अमरेली कॉलेज में त्यागपत्र भेजा और १५ जून १९६५ को राजकोट आ गया ।
राजकोट बड़ा शहर, औद्योगिक विकास की ओर कदम बढ़ाता शहर । धर्मेन्द्रसिंह आर्ट्स कॉलेज जैसा बड़ा