Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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एवं सफलता की कहानी
1311 । जानकर सबकी जान में जान आई चार-पाँच दिन आराम करना पड़ा। इस पूरी घटना में दुःखी थी तो नव वधु। | वह खुलकर रो भी नहीं सकती थी.....। संकोच जो था। खैर! यह दुःख भी टल गया।
जिंदगी की गाड़ी पुनः रफ्तार से चलने लगी। एक ओर विवाह की खुशी। दूसरी ओर मेट्रिक की परीक्षा की चिंता। आखिर पढ़ने के ध्येय ने विजय प्राप्त की और आठ-दस दिन बाद पुनः पढ़ाई में लग गये। क्योंकि अब परीक्षा के सिर्फ २५ दिन ही बाकी थे।
पत्नी और उनका स्वभाव । मेरी पत्नी जिनकी पसंदगी मेरे पिताजी ने की थी। जैसा कि मैंने जाना मेरी पत्नी अपनी छोटी बहन और माँ
के साथ श्री महावीरजी के महिलाश्रम में रहकर अध्ययन करती थीं। अध्ययन तो ठीक एक प्रकार से गुजारा
करती थीं। जैसाकि मुझे बाद में पता चला मेरे श्वसुर साहब श्री रज्जूलालजी का कम उम्र में देहावसान हो गया } था। मेरी सासूजी उस समय पूर्ण युवा थीं, मात्र दो ही पुत्रियाँ थीं। हमारे श्वसुर चार भाई थे। जिनमें सबसे बड़े
श्री जालमचंद जी, दूसरे श्री चंद्रभानजी, तीसरे श्री रज्जूलालजी और सबसे छोटे श्री रघुवरदयालजी थे। सबसे बड़े श्वसुर साहब की पुत्री का विवाह प्रसिद्ध संत श्री सहजानंदजी वर्णी से हुआ था। यह मेरा गौरव है कि मुझे उनका साढूभाई होने का गौरव प्राप्त हुआ। रज्जूलालजी की मृत्यु होने के पश्चात मेरी सासू और उनकी दोनों बेटियाँ लगभग अनाथ सी हो गईं थीं। मेरी सासुजी यद्यपि निरक्षर थीं पर भविष्य का ख्याल करके पुत्रियों सहित महिलाश्रम में दाखिल हो गईं। उन्होंने श्री महावीरजी एवं इन्दौर के श्राविकाश्रम में रहकर स्वयं अध्ययन किया
और दोनों बेटियों का लालन-पालन किया। इस अनाथालय में उन तीनो में ऐसी सहनशक्ति आई कि जैसे सबकुछ सहन करने का उनका स्वभाव बन गया।
सन् १९५६ के फरवरी में मेरा विवाह हुआ और मक्खनदेवी पत्नी बनकर घरमें आईं। प्रथम दिन की दुर्घटना से वे बड़ी दुखी थीं। रोतीं पर मन ही मन। उन्हें यह भय सताता था कि कहीं मुझे या मेरे आगमन को इसका कारण न मान लिया जाय। औरतो में वैसे खुसुर-पुसुर तो हुई भी पर मेरे पिताजी व परिवार के लोगों ने ऐसा कुछ नहीं माना अतः वे एक मानसिक तनाव से बच गईं। __ बचपन की परिस्थिति कहो या जन्मजात स्वभाव.... वे सदैव सरल व क्षमाशील रही हैं। कभी भी कोई संघर्ष न करना, किसी से ऊँच-नीच नहीं बोलना, (झगड़े का तो प्रश्न ही नहीं था) बड़ों की आज्ञा मानना उनके संस्कार थे। यही कारण है कि सदैव संयुक्त कुटुंब में रहने पर भी कभी किसी से अनबन नहीं हुई। मेरी माँ थोड़ी कड़क थीं पर पत्नी की सरलता से वे भी उनसे प्रसन्न थीं।
चूँकि मेरा स्वभाव पिताजी की तरह कड़क या यूँ कहूँ कि गुस्सैल था- आज भी है। मैं प्रातः छह बजे से रात दस बजे तक स्वयं कॉलेज जाकर पढ़ने, स्कूल में पढ़ाने एवं ट्यूशन करने में व्यस्त रहता। इस अधिक दौड़धाम
भाव में विपरीतता आ रही थी। जो कभी कभार पत्नी पर भी गुस्सा बनकर उतरती । भला-बुरा कहना तो स्वभाव सा हो गया। ___ मेरे विवाह के समय मेरी बहन सावित्री विवाह योग्य थी। पुष्पा छह-सात वर्ष की थी, महेन्द्र चार वर्ष का एवं सनत डेढ़ वर्ष का था। इन सबकी परवरिश मेरी पत्नी ने भाभी की जगह भाभी माँ की तरह की थी। आजभी सभी भाई-बहन उनकी भाभी से अधिक मातृव्रत इज्जत करते हैं। दोनों भाईयों की शादियाँ कीं। पर कभी किसी देवरानी से कभी भी मनमुटाव नहीं रहा। वास्तव में तो मौन रहकर अपनी पीड़ा को दरगुजर कर उन्होंने हमलोगों