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होनेवाली उनकी पत्रिका 'तीर्थंकर वाणी' के अलावा हिन्दी के अलावा गुजराती एवं अंग्रेजी खण्ड भी नियमित
प्रकाशित होता है। डॉ. शेखरचन्द्र की मातृभाषा हिन्दी हैं। गुजराती उनकी अर्जित भाषा है। पर उन्हें सुनकर यह | भ्रम हो सकता है कि गुजराती ही उनकी मातृभाषा है। ! मेरे साथ उनका संवाद एक और भाषा बुन्देली में भी होता है। यह उनके पूर्वजों के जनपद और गाँव की बोली ! है। लगता है, जैसे इसे बोलने के लिए उनमें छटपटाहट होती है। बात आमने-सामने हो रही हो या दूरभाष पर । वे इसे बोलने के लिए अवकाश और अवसर निकाल लेते हैं। उनका कहना है कि 'बुन्देली तो उनके रक्त और | संस्कार में है। उससे कैसे बच सकते हैं?' । जीवन में जब भी कोई तनाव या उदासी घेरती है और मैं हँसना चाहता हूँ मुझे डॉक्टर शेखरचन्द्र याद आते । हैं। उनसे मिलकर, उनसे बात करके, दूरभाष पर बात करके भी सारे तनाव और उदासी को अलविदा किया जा
सकता है। वे उन विरले जैन विद्वानों में से हैं जो हँसी-मजाक समझ सकते हैं, खुदभी हँसी-मज़ाक कर सकते । हैं, उसका लुत्फ उठा सकते हैं और इससे भी बड़ी बात यह कि खुद अपने ऊपर भी दिल खोलकर हँस सकते हैं। ! अपने प्रवचनों को हिन्दी, उर्दू की स्तरीय कविता-पंक्तियों के द्वारा अधिक ग्राह्य और अर्थपूर्ण बनाते हैं और पंक्तियों को सही रूप में उद्धृत करते हैं।
डॉ. शेखरचन्द्र पथरीली जमीन से उठे हुए व्यक्ति हैं। इसलिए उनकी जड़ें बेहद मजबूत और गहरी हैं। जीवन | में वे कभी डगमगाए भले ही हों पर उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। वे निरन्तर चलते हुए सभी मोर्चों पर प्रायः | अकेले ही लड़ते रहे। उन्होंने कभी सन्तुलन नहीं खोया। महावीर के अनेकान्तवाद में विश्वास रखते हुए हर पक्ष । को देखा। वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक आदि में से किसी भी पक्ष |
क्षेत्र को उपेक्षित नहीं किया। उनका कभी कोई गोडफादर नहीं रहा। आज जब दूर-दूर के लोग उनका अभिनन्दन कर रहे हैं, तब महसूस होता है कि दरअसल दुनिया में न तो गुण खोया है और न गुणग्राहक।।
डॉ. जयकुमार जैन 'जलज' (रतलाम) a अन्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अद्वितीय विद्वान्
चहुमुखी प्रतिभा के धनी, विद्वानों की शान, सरल, सुबोध सरस निर्भीक स्वतंत्र लेखन व विचारों के । प्रस्तोता- डॉ. शेखरचन्द्रजी जैन से राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय जगत पूर्णतः परिचित है। उनका विद्वानों द्वारा सम्मान करना तथा 'अभिनन्दन ग्रन्थ' निकालना, स्वस्थ्य मानसिकता का प्रतीक हैं। डॉ. साहब का लेखन कार्य, सम्पादन व सामाजिक सेवा, धार्मिक प्रवृत्ति अनुकरणीय है। उनका वक्तव्य जब मैं सुनती तो सुनती रह जाती। वह जो भी कुछ बोलते वह जैन सिद्धांत के आधार पर निडर होकर बोलते, उनके वक्तव्य में गर्जना व पीड़ा होती है। उनकी सदैव भावना रहती- अगर-मगर के साथ नहीं सत्यता के साथ आगम सम्मत बात होनी चाहिए। वह ऊपर से जितने कठोर दिखते उतने ही अन्दर से मुलायम हैं। उनके अन्दर प्रेम भाव इतना कि जिससे व्यक्ति से वह बात करते वह सहज में ही आपका हो जाता। आप हास्य वातावरण उत्पन्न करने तथा सरलता, सहजता, निश्छल व्यवहार के लिए सर्व प्रिय हैं। आपकी अधिकार पूर्ण बात में अपनेपन की महक आती है। आपका स्नेह-प्यार मुझे सदैव बेटी के रूप में मिलता है यह मेरा सौभाग्य है। ग.आ. ज्ञानमतीजी की जयन्ती कार्यक्रमादि सम्पन्न होने के पश्चात वापिसी में जब हम लोग स्टेशन पहुँचे तो अंकलजी थकान महसूस करते हुये वहाँ पड़ी सीट पर बैठ गये और अपने घुटने सहलाने लगे। मैंने बेटी होने का अधिकार जताते हुए कहा, 'जब आपका