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जीवन में अहम भूमिका है।
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जैसाकि पिताजी ने बताया अस्तारी गाँव जो मध्यप्रदेश के डकैती एरिया का गाँव है। घर पर दो बार सशस्त्र Asha पड़ीं। डाकू द्वारा सारा माल तो गया ही डाकुओं के अत्याचार से दादाजी बुरी तरह जख्मी हुए। लगभग सन् १९४२-४३ में पिताजी मुझे और माँ को कुछ दिनों के लिए गाँव छोड़ आये थे । मैं लगभग चार-पाँच वर्ष का रहा होउँगा। संक्रांति का दूसरा दिन अर्थात् १५ जनवरी का दिन था, अतिशय ठंड पड रही थी । मेरे मज़ले चाचा श्री कमलचंदजी की सगाई हो चुकी थी। उनके विवाह की तैयारियाँ चल रहीं थीं। शाम के धुंधलके में पाँच बंदूकधारी एकदम घर में घुस आये। संयोग से मैं अपने पड़ौसी चाचा बालचंदजी के साथ जंगल में गया था । सुना है डाकुओं ने सबसे पहले हमारे चाचा पर बंदूक तानकर पूछा कि 'तू कौन है?' चाचा समझ गये कि ये डाकू मुझे नहीं पहचानते हैं - चाचा ने जनोई पहना हुआ था अतः सद्यः : बुद्धि से कहा 'हुजूर मैं तो ब्राह्मण हूँ यहाँ विवाह की तिथि निकालने आया हूँ।' डाकुओं ने उनपर विश्वास करते हुए डंडा जमाते हुए कहा कि 'यहाँ से टस से मस मत होना नहीं तो जान से मार देंगे' वे डरकर वहीं बैठे रहे। मेरी माँ से भी आग्रह किया कि वे चलकर बतायें कि गहने कहाँ रखे हैं? पर माँ उनके साथ नहीं गईं तो उन्होंने उन्हें मार-पीट कर एकओर बैठा दिया। अब वे सभी दादाजी पर टूट पड़े और लाठी- धारिया से उनपर वार किये। उन्हें यहाँ तक मारा कि मरा समझकर ही छोड़ गये । डाकुओं ने पूरा घर तितर-बितर कर दिया। जो भी गहने-नकदी उनके हाथ लगी वे सब लेकर चले गये । बचाकुछा सारा सामान धरती पर बिखेर गये। यह कांड दो-तीन घंटो चलता रहा। यह कांड हमारे घर के साथ पड़ौस में श्री घुरकेलालजी के यहाँ भी होता रहा। जिसमें मार के कारण उनकी धर्मपत्नी को जान से हाथ धोना पड़ा ।
पूरा गाँव भयभीत था । कोई भी घर से बाहर आने की हिंमत नहीं कर पा रहा था। आखिर लूट करने के बाद डाकुओं के जाने के पश्चात गाँव के लोग आये। मैं भी चाचा के साथ लौटा। चूँकि यह सब उस समय मेरी समझ से बाहर की बातें थीं। लोग खटिया पर डालकर दादाजी को कटेरा ले गये । जहाँ उनका महिनों इलाज चलता रहा। इतना आघात सहने पर भी दादाजी के आत्मविश्वास ने उन्हें जीवित रखा और वे स्वस्थ हुए। इस डकैती में घर के ज़ेवर तो गये ही, जो किसानों के ज़ेवर आदि गिरवी रखे थे वे भी चले गये ।
अब समस्या यह थी कि दादाजी ठीक हों और लोगों के ज़ेवर कैसे लौटाये जायें। उधर सरकारी कानून से जमीनें भी हाथ से निकल रही थीं। गिरवी की जमीनें भी किसानों को लौटानी थी । दिये हुए पैसे लौट नहीं रहे थे । परेशानियाँ बढ़ रहीं थीं। एक प्रकार से हरा-भरा खेत सूख गया था। वसंत में पतझड़ आ चुका था। किसी तरह चाचा का विवाह तो हुआ पर धूमधाम नहीं थी । गम में ही सारे कार्य संपन्न हुए। अब घर चलाने की समस्या थी । पिताजी पढ़े-लिखे नहीं थे, पर घर में सबसे बड़े थे। इस डकैती की खबर सुनकर वे गाँव आये यहाँ की विकृत हालत देखकर वे टूट से गये । पुनः हिंमत जुटाई और हम सब लोगों को अहमदाबाद वापिस ले आये ।
ग्राम्यजीवन
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यद्यपि मेरा लालन-पालन अहमदाबाद में हुआ पर दो-चार साल में एकादबार गाँव जाता रहा। क्योंकि वहाँ मेरे दादा-दादी रहते थे । मेरा गाँव झाँसी से लगभग ५० कि.मी. दूर निवाड़ी तहसील में है। नाम अस्तारी । म.प्र. और उ.प्र. की सीमा पर स्थित । हमारे गाँव से उ. प्र. की सीमा सिर्फ २ कि.मी. है। हमें झाँसी मानिकपुर लाईन पर टेहरका स्टेशन उतरना पड़ता था । वहाँ से ६-७ कि.मी. दूर पैदल चलना पड़ता । मुझे स्मरण हैं कि जब मैं