Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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सात सय एवं सफलता की कहान
1211 भाई-बहन
सन् १९४१ से १९५० तक मैं व मेरी छोटी बहन सावित्री दो ही संतान थे। पश्चात १९५०, १९५२ व १९५५ में क्रम से बहन पुष्पा, भाई महेन्द्र व भाई सनत का जन्म हुआ। मुझसे छोटी बहन सावित्री यहीं नागोरी । चाल में रहकर म्यु. के स्कुल में राजपुर हिन्दी शाला में पढ़ती थी। बहनों में वह बड़ी थी। माँ घर पर अकेली ही
सारा कामकाज करती थी। अतः सावित्री को पढ़ने का कम ही समय मिलता। वह छोटे भाई-बहनों को ही खिलाती रहती उनकी देखरेख करती। इन सबसे समय निकालकर पढ़ने जाती। वह सातवीं कक्षा में थी। घर की ऐसी ही परेशानियों के कारण उसे पढ़ाई से उठा लिया गया। उस समय लड़की का विवाह १५-१६ वर्ष की उम्र में ही कर दिया जाता था। सावित्री १३-१४ वर्ष की थी। उसे घरकामभी सीखना था। इसलिए वह बचपन के खेल व किशोरावस्था के किसी भी पारिवारिक सुख को नहीं पा सकी। मुझे यहाँ लिखते हुए प्रसन्नता है कि उसने अपनी ससुराल में जाकर अपनी बेटियों को डॉक्टरेट तक पढ़ाने के साथ स्वयं भी एम.ए. तक की पढ़ाई की।
मेरी छोटी बहन सावित्री के विवाह की चिंता पिताजी को थी। चूँकि मेरा विवाह १९५६ में हो गया था अतः बहन के लिए लड़का ढूँढने की मेरी भी जिम्मेदारी हो गई थी। मैं भी पिताजी के आदेश से झाँसी, ललितपुर आदि स्थानों पर लड़के ढूँढने जाता। एक तो दूर का मामला... फिर लड़के वालों के नखरे... बड़ा परेशान। हम सावित्री को इसीलिए अपनी बुआ और फूफाजी के यहाँ बीना लिवा ले गये और वहीं से उसे दिखा देते। लड़के वाले आते कोई न कोई बहाना बनाकर चले जाते। कई घरों में बड़ी उपेक्षा भी होती, बुंदेलखंड में वैसे भी लड़कीवालों के साथ सौतेला सा व्यवहार होता है। आखिर मेरे फूफाजी व उनके बड़े भाई के माध्यम से ललितपुर में बात बन गई। लड़की बीना में दिखाई गई। पहली बार तो 'ना' ही सुनना पड़ा। पर एक-दो अन्य रिश्तेदारों की मदद से सविशेष पं. परमेष्ठीदासजी एवं देलवारे वाले श्री परमानंदजी के सहयोग से बात बन गई। पिताजी भी प्रसन्नता से अहमदाबाद लौटे। पर दो-चार दिन में ही समाचार आया की लड़का हाथीपाँव है। पिताजी परेशान..... माँ व्याकुल..... हम लोग पिताजी पर नाराज......। आखिर विवाह की जो तिथि तय की थी उसी तिथि में विवाह करने का संकल्प करके एकमाह पूर्व पिताजी एवं काका कमलाप्रसादजी सपरिवार बीना गये। वहाँ से फूफाजी को लेकर ललितपुर गये। पर हरदासजी से कहे कौन? हरदासजी का स्वभाव अर्थात् अंगारे पर पाँव रखना। जब उन्हें इसकी भनक लगी तो वे उग्र रूप से जो भी पहले तय करते समय पिताजी शगुन दे गये थे उसे फेंकते हुए उन्होंने सगाई की बात तोड़ने को कहा। बात बिगड़ी भी। पर जब पं. परमेष्ठीदासजीने कहा 'हरदासजी अगर कोई तुमसे कहता कि लड़की लंगडी है या अन्य खराबी है तो क्या पुनः लड़की देखते या नहीं? जीवनभर का सौदा है। अगर वे चाहते हैं तो नाराज क्यों होते हो?' बात उनके समझमें आई और संबंध यथावत रहा।
विवाह अहमदाबाद से न करके पैतृक गाँव कटरा से किया गया। रसोईया भी उन्होंने ललितपुर से भेजा। असली घी की मीठाई ही बने यह तय हुआ। पिताजी अपने गाँव अस्तारी गये। सारे किसान प्रसन्न थे कि हम लोग गाँव से शादी कर रहे हैं। उस समय घी पाँच रू. का सेर था और उन लोगो ने चार - साढ़े चार रू. के भाव से घी दिया। ग्यारह डब्बे घी खरीदा गया। लगभग दो सौ बाराती इस अंदरुनी गाँव में आये। ठंडी के दिन..... पर गाँव के ढीमर (पानी भरने वाले) सभीने बड़ी तन्मयता से काम किया। सौ बाराती तो रात्रि को टीका के बाद ही लौट गये। ___ उसी रात एक विचित्र घटना घटी। हमारा गाँव डकैती ऐरिया का गाँव है। हमारे ही चचेरे चाचा श्री चंद्रभानजी ने यह बात उड़ाई की गाँव के आसपास डकैत हैं। शादी दरवाजा बंद करके अंदर ही कर ली जाये। सब लोग घबड़ा ।