________________
स्मृतियों के वातायन से
खुरई गुरुकुल में शिक्षा
मेरे पिताजी के मनमें निरंतर यही बात रहती थी कि वे मुझे जैनधर्म का पंडित बनायें। वे प्रायः पंडितों के प्रवचन सुनते - उनकी प्रतिष्ठा देखते और बस.. एक ही संकल्प करते - मेरा पुत्र भी पंडित बने । आखिर वे मध्यप्रदेश स्थित खुरई के श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन गुरुकुल में मेरे फूफाजी वैद्यराजे पं. सुरेन्द्रकुमारजी की सहमति से वहाँ दाखिल करा आये। उस समय गुरुकुल में फुल पेड फीस २० /- मासिक लगती थी। जिसमें रहना, खाना-पीना सबका समावेश था। वहाँ पं. श्री भुवनेन्द्रकुमारजी सुप्रिन्टेन्डेन्ट थे । तथा श्री श्रीकुमारजी एतवडे (कारंजावाले) प्रधानाध्यापक थे। नई जगह थी। नया वातावरण था, नये लोग थे। जीवनमें पहली बार घर छोड़कर आया था। अतः बड़ा ही अकेलापन लगता था । यहाँ घर पर चाहे जितनी बार खाते थे। पर वहाँ नियम से दो बार भोजन व दोपहर में थोड़ा सा नास्ता मिलता था। सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना अनिवार्य था। पं. भुवनेन्द्रकुमारजी गाँव में जाकर उत्तम गेहूँ, शुद्ध घी आदि लाकर विद्यार्थीयों को खिलाते थे और पितृवत् स्नेह भी करते थे।
यहाँ गुरुकुल में एक ही भवन था । उसीमें कक्षा लगती और वहीं कमरा रात्रि को सामूहिक शयनकक्ष बन जाता तो दिनको उसीमें कक्षायें भी लगतीं। यहाँ लौकिक शिक्षा के साथ धर्म शिक्षण अनिवार्य था । गुरुकूल में कक्षा ५ से विद्यार्थी लिये जाते थे । यहाँ कक्षा ९ तक की पढ़ाई का प्रबंध था । कक्षा ५ में बालबोध के चार भाग, कक्षा ६ में छहढाला एवं द्रव्यसंग्रह, कक्षा ७ में रत्नकरंड श्रावकाचार, कक्षा ८ में सागारधर्मामृत और कक्षा ९ में सर्वार्थसिद्धि का अध्ययन कराया जाता था। इस कारण मुझे कक्षा ७ में रत्नकरण्ड श्रावकाचार का अध्ययन करना था। यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि मैं अहमदाबाद से कक्षा ७ पास करके आया था। पर संस्कृत, धर्म एवं अंग्रेजी के नये विषय होने से मुझे बड़ी मुश्किल से पुनः कक्षा ७ में लिया गया।
गुरुकुल में रहनेवाले विद्यार्थी की दिनचर्या पूर्ण ब्रह्मचारी की दिनचर्या होती थी । प्रातः ४.३० बजे उठना । उठकर समूहमें प्रार्थना, अध्ययन का कार्य लगभग ६.३० बजे तक चलता । पश्चात् नित्यक्रिया से निवृत्त होकर 1 स्वयं कुएँ से पानी खींचकर खुले में स्नान करते और देव-दर्शन और पूजन अनिवार्य रूप से करते । १०.३० बजे पूर्ण शुद्ध भोजन प्राप्त होता । शाम को खेल-कूद सूर्यास्त से भोजन, फिर भ्रमण | रात्रि को आरती, प्रवचन और अध्ययन । रात्रि को १० बजे सोना अनिवार्य था ।
126
शाम का भोजन सूर्यास्त से पूर्व करना पड़ता था, इससे रात्रि को खूब भूख लगती । अतः हम बच्चे जब शाम को घूमने जाते तो बेर, केंत, इमली आदि फल तोड़ते उन्हें छिपाकर रखते और रात्रि को उसे खाते। साथ ही रात्रि में एक विद्यार्थी को चोरी छिपे सामने ही रेल्वे स्टेशन पर सिंधी की दूकान पर भेजते और मूँगफली, गजक आदि
मँगा। सभी नास्ता बाँट लेते फिर चादर ओढ़कर मुँह ढ़ककर खाते रहते। मज़ा तब आता जब प्रातः कमरे
और छिलके मिलते। चूँकि कमरे हमें ही साफ करना पड़ते थे अतः शिकायत किससे करते ? मुझे स्मरण है कि १४ जनवरी १९५३ का दिन था। मकरसंक्रांति थी । दुर्भाग्य या सौभाग्य से उसदिन चतुर्दशी थी । जबरदस्ती का एकासन या दो बार भोजन का नियम था। उस दिन नास्ता भी नहीं मिलता था। अतः खेत में
कर खूब मटर और चने खाये। इस बात का पंडितजी को पता चल गया। बस फिर क्या था हम लोगों की धुलाई हुई और तीन-चार दिन को नास्ता बंध। प्रतिकार के रूप में उन्हें कोसते रहे ।
तीन-चार दिन नास्ता बंध रहा इसकी बड़ी झुंझलाहट थी। कुछ दिन बाद लगभग फरवरी महिने में जबकुछ गरमी पड़ने लगी थी, हमारे सुप्रिन्टेन्डेन्ट श्री भुवनेन्द्रकुमारजी नीचे कार्यालय में खिड़की खोलकर सो रहे थे। • हमारा कमरा ठीक कार्यालय के ऊपर था। मुझे रात्रि को पेशाब लगी। एक शरारत सूझी। संक्रांति की सजा का