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____ मैंने उनकी कुछ किताबें पढ़ी और मुझे लगा कि वे एक उत्तम वक्ता ही नहीं अच्छे लेखक भी हैं, जो जैनधर्म
के गहन विषय को कहानी और उपन्यास के माध्यम से या निबंधों की ललितशैली में समझाने में सिद्धहस्त हैं। ___इतने बड़े विद्वान् होकर भी वे विद्वत्ता के अहम् और भार से मुक्त हैं। जिस सरलता से सबसे मिलते हैं और उसीके अनुरूप हो जाते हैं यह उनके व्यक्तित्व की सरलता है। दूसरा पक्ष यह है कि विद्वान समाज सेवा में कम ही देखे जाते हैं, परंतु उन्होंने जैसे अपना सारा जीवन जनसेवा के लिए अर्पित किया है और वे अपना तन-मनधन अस्पताल के विकास में और गरीबों के आँसू पोछने में ही समर्पित कर रहे हैं। ऐसा विरल व्यक्तित्त्व कम ही देखने को मिलता है। ___ सत्य यह है कि यह हमारे दिगम्बर जैन समाज का ही नहीं पूरे जैन समाज का गौरव है कि डॉ. शेखरचंद्र जैसे विद्वान् हमारे अपने हैं। मैं उनकी इन चहुंमुखी प्रतिभा के कारण उनका अंतःकरण से प्रशंसक हूँ और यही भावना करता हूँ कि वे ऐसे ही गौरवमय शिखर पर पहुँचकर समाज को मार्गदर्शन देते रहें एवं धर्म के प्रचारप्रसार में समर्पित रहें।
नरेश जैन (विसत डिटर्जन्ट, अहमदाबाद)
| पुरुषार्थी व्यक्तित्व ____डॉ. शेखरचंद्र जैन से हमारा प्रथम परिचय हमारे कोमन मित्र श्री धीरूभाई देसाई के शॉ रूम पर हुआ। उस । समय वे चिंतित थे कि अस्पताल के लिए मकान तो ले लिया परंतु अब कार्य को कैसे बढ़ाया जाय। आर्थिक | परेशानियाँ उनके चेहरे पर झलक रही थीं। उसी समय हमारे मित्र श्री रमेशभाई धामी भी वहाँ पहुँचे, और उस
समय अस्पताल की योजना समझ कर हम आशापुरा माताजी के भक्तों ने उन्हें २१ लाख रू. देने की ओफर की,
और हमने सिर्फ यही चाहा कि वे अस्पताल को 'श्री आशापुरा माँ जैन (गाधकड़ा)' नाम दें। जिसका उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। उस समय उनसे बातचीत के दौरान हमें महसूस हुआ कि यह अवश्य कुछ करना चाहते हैं, मुझे याद आ रहा है कि जब आँख के निःशुल्क नेत्र ऑपरेशन के कार्यक्रम का गुजरात के महामहिम राज्यपालश्री प्रारंभ करा रहे थे तब उन्होंने कहा था- 'इस आदमी मैं दम है और मुझे विश्वास है कि यह व्यक्ति इस अस्पताल को वृद्धिंगत करेगा।' ये शब्द मैं तो सन् 1998 से ही कह रहा था और मुझे प्रसन्नता इस बात की है कि डॉ. जैन ने इन शब्दों को सार्थक किया। __ अस्पताल का जिस भव्यता से उद्घाटन कराया और इसके बाद विविध प्रसंगों पर राज्यपाल महोदय, मंत्री महोदय या गण्यमान्य श्रेष्ठिजनों को बुलाकर जो भव्य कार्यक्रम किये उससे यह स्पष्ट है कि वे कितने कर्मठ और समर्पित हैं। मैंने उनके अंतर में अस्पताल के लिए एक ऐसा पागलपन देखा है कि वे उसके लिए अपना घर, परिवार भी भूल जाते हैं और अस्पताल के विकास के लक्ष्य के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं। उनके ही शब्दों में कहें तो 'अस्पताल के विकास के लिए उनका दान प्राप्ति हेतु कटोरा खुला ही रहता है'। उन्होंने परदेश से जिस प्रकार की आर्थिक सहायता अपने ज्ञान के माध्यम से प्राप्त की है वह अतुलनीय है। मैं समझता हूँ कि धर्म, भाषा, प्रदेश इन सबसे ऊपर उठकर उन्होंने मानवता की सेवा का जो व्रत लिया है वह हम सब लोगों के लिए । अनुकरणीय है, और हम भी उनके इस अभियान में सहयोगी बनें यही मेरी व मित्रों की भावना है। त्रिलोचनसिंह भसीन (दिल्ली)
रमेशभाई पामी (सूरत)