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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ९३.
संभवो ? ण, बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावादो । तं कुदो णव्वदे ? तदभावे वि अंत रंगहिंसादो चेव सित्थमच्छस्स बंधुवलंभादो । जेण विणा जं ण होदि चेव तं तस्स कारणं । तम्हा अंतरंगहिंसा चेव सुद्धणएण हिंसा ण बहिरंगा त्तिसिद्धं । ण च अंतरंगहिंसा एत्थ अस्थि ; कसायसंजमाणमभावादो । उत्तं च
जयदु मदु व जीवो अयदाचारस्य णिच्छओ बंधो । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदीहि ॥ २ ॥ सरवासे दुपदंते जह दढकवचो ण भिज्जहि सरेहि । तह समिदीहि ण लिप्पइ साहू काएसु इरितो जत्थेव चरइ बालो परिहारहू वि चरइ तत्थेव ।
॥ ३ ॥
वज्झइ सो पुण बालो परिहारहू वि मुंचइ सो ।। ४ ।। स्वयं ह्यहिंसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः ॥ ५ ॥ वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते शिव च न परोपमदंपरुषस्मृतेविद्यते । वधोपनयमभ्युपैति च पराननिघ्नन्नपि त्वयायमतिदुर्गमः प्रशमहेतुरुद्योतितः | ६ ||
समाधान-- नहीं; क्योंकि, बहिरंग हिंसा आस्रवरूप नहीं होती ।
शंका -- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- क्योंकि, बहिरंग हिंसाका अभाव होनेपर भी केवल अन्तरङ्ग हिंसा से सिक्थ मत्स्य के बन्धकी उपलब्धि होती है ।
जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्धनयसे अन्तरंग हिंसा ही हिंसा है, बहिरंग नहीं; यह बात सिद्ध होती है । यहाँ अन्तरंग हिंसा नहीं है; क्योंकि, कषाय और असंयमका अभाव है । कहा भी है-
चाहे जीव जिओ चाहे मरो, अयत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले जीवके नियमसे बन्ध होता है, किन्तु जो जीव समितिपूर्वक प्रवृत्ति करता है उसके हिंसा हो जाने मात्रसे बन्ध नहीं होता || २ ||
सरोंकी वर्षा होने पर जिस प्रकार दृढ कवचवाला व्यक्ति सरोंसे नही भिदता है उसी प्रकार षट्कायिक जीवोंके मध्य में समितिपूर्वक गमन करनेवाला साधु पापसे लिप्त नहीं होता है ॥ ३ ॥
जहाँ पर अज्ञानी भ्रमण करता है वहीं पर हिंसा के परिहारकी विधिको जाननेवाला भी भ्रमण करता है, परन्तु वह अज्ञानी पापसे बँधता है और परिहार विधिका जानकर उससे मुक्त होता है ॥ ४ ॥
अहिंसा स्वयं होती है और हिंसा भी स्वयं ही होती है । यहाँ ये दोनों पराधीन नहीं हैं। जो प्रमादहीन है वह अहिंसक है किन्तु जो प्रमादयुक्त है वह सदैव हिंसक है ॥ ५ ॥ कोई प्राणी दूसरेको प्राणोंसे वियुक्त करता है फिर भी वह बंध से संयुक्त नहीं होता ।
मूलाचा० ५ १३१ ।
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मलाचा० ५ १३२ ।
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