________________
२३४ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, १२८
अभव्वजीवाणं पि अभावावत्तदो । ण च तं पि, संसारीणमभावापत्तीदो। ण चेदं पि, तदभावे असंसारीणं पि अभावप्यसंगादो । संसारीणमभावे संते कथं असंसारीणमभावो ? बुच्चदे, तं जहा - संसारीणमभावे संते असंसारिणो वि णत्थि, सव्वस्स सपडिबक्खस्स उवलंभण्णहाणुववत्तदो । तदो सिद्धं अदीदकाले अपत्ततसभावा अनंता जीवा अस्थि त्ति । एत्थ उवउज्जती गाहा
सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणतपज्जाया । गुपायधुवत्ता सप्पविक्खा हवइ एक्का ||१८||
किमट्ट ते तसपरिणामंण लहंति ? 'भावकलंकसुपउरा' भावकलंक: संक्लेशः, तं लाति आदत्त इति भावकलंकलः । एकेन्द्रियजातावुत्पत्तेर्हेतुरिति यावत् । तस्य प्राचुर्य्यात् एत्थतणजीवा णिगोदवासं ण मुंचंति ण छंडंति त्ति भणिदं होदि । एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्यमाणदो विट्ठा ।
सिद्धेहि अनंतगुणा सव्वेण वि तीदकालेण ॥ १२८॥
1
नहीं, क्योंकि, उनका अभाव होनेपर अभव्य जीवोंका भी अभाव प्राप्त होता है । और वह भी नहीं है, क्योंकि, उनका अभाव होने पर संसारी जीवोंका भी अभाव प्राप्त होना है । और यह भी नहीं है, क्योंकि, संसारी जीवोंका अभाव होने पर असंसारी जीवोंके भी अभावका प्रसंग आता है ।
शंका- संसारी जीवोंका अभाव होनेपर असंसारी जीवोंका अभाव कैसे सम्भव है ? समाधान- अब इस शंकाका समाधान करते हैं । यथा-संसारी जीवोंका अभाव होने पर असंसारी जीव भी नहीं हो सकते, क्योंकि सब सप्रतिपक्ष पदार्थोंकी उपलब्धि अन्यथा नहीं बन सकती ।
इसलिये सिद्ध होता है कि अतीत कालमें त्रसभावको नही प्राप्त हुए अनन्त जीव हैं । यहाँ पर उपयुक्त पडनेवाली गाथा कहते हैं
सत्ता सब पदार्थों में स्थित है, सविश्वरूप है, अनन्त पर्यायवाली है, व्यय, उत्पाद और ध्रुवत्वसे युक्त है, सप्रतिपक्षरूप हैं और एक है || १८||
उत्तरार्ध में करता है
वे सपरिणामको क्यों नहीं प्राप्त करते हैं, इसके समाधान में सूत्रगाथाके कहते है- 'भावकलंकसुपउरा' भावकलङ्क अर्थात् संक्लेश | उसे 'लाति' अर्थात ग्रहण वह भावकलंकल कहलाता है । एकेन्द्रियजातिमें उत्पत्तिका हेतु यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसकी प्रचुरता होने से यहांके जीव निगोदवासको नहीं त्यागतें हैं अर्थात् नही छोड़ते है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
एक निगोदशरीरमे द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा देखे गये जीव सब अतीत कालके द्वारा सिद्ध हुए जीवोंसे भी अनन्तगुणे हैं ॥ १२८॥
1
म०प्रतिपाठोऽयम् । ताप्रती 'वि अ (ग) थि' अ०का०प्रत्यो: 'वि अस्थि' इति पाठ: 'तसपरिणामाणं इति पाठः । ता० प्रती 'भावकलंक: ( कल ) अ०का प्रत्योः भावकलंक:'
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
अप्रती इति पाठ:
www.jainelibrary.org