Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 539
________________ ५०६ ) छपखंडागमे वगणणा खंड ( ५, ६, ६५० उवरिमुक्कस्सिया अपज्जत्तणिवत्ती अंतोमुहुत्तिया ॥६५०।। सुगमं । तत्थ इमाणि पढमदाए आवसयाणि होति ॥६५१॥ पढमदाए पढमसमयप्पहुडि जाव सुहमणिगोदजीवाणं उक्कस्सिया अपज्जत्तणिवत्ती तत्थ इमाणि उवरि भण्णमाणआवासयाणि होति, ण अण्णत्थ, असंभवादो । एदाणि पढमदाए वत्तवाणि, एदेहितो सेसावासयाणं सिद्धीए । तदो जवमज्झं गंतण सहमणिगोदअपज्जत्तयाणं णिल्लेवणट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥६५२॥ तदो इदि वुत्ते उप्पण्णपढमसमयप्पहडि अंतोमहत्तं गंतूण जवमज्झस्स पढमसमयो होदि त्ति वत्तन्वं । कुदो? पढमसमयप्पहुडि उवरि ताव संखेज्जावलियाओ त्ति तत्थ पिल्लेवणढाणाणमभावादो*।तत्थ ताणि त्थि त्ति कुदो णव्वदे? अपज्जत्तणिवत्तणकालो जहण्णओ वि संखेज्जावलियमेत्तो चेव होदि ति गुरूवएसादो । जवमज्झमिति किरियाविसेसणं, तेग जहा जवमझं होदि तहा गंतू ग सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयाण उपरिम उत्कृष्ट अपर्याप्त निर्वत्ति अन्तर्मुहर्तप्रमाण है ।६५०॥ यह सूत्र सुगम है। वहाँ प्रथम समयसे लेकर ये आवश्यक होते हैं ॥६५१॥ पढमदाए अर्थात् प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्म निगोद जीवोंकी उत्कृष्ट अपर्याप्त निर्वृत्ति तक वहाँ ये आगे कहे जानेवाले आवश्यक होते हैं अन्यत्र नहीं होते, क्योंकि, अन्यत्र उनका होना असम्भव है। ये प्रथम समयसे कहने चाहिए. क्योंकि, इनसे शेष आवश्यकोंकी सिद्धि होती है। ___तदनन्तर यवमध्यके व्यतीत होनेपर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्पकोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान होते हैं ।। ६५२।। तदो ऐसा कहनेपर उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्महुर्त जाकर यवमध्यका प्रथम समय होता है ऐसा यहाँ कहना चाहिए, क्योंकि, प्रथम समयसे लेकर कार संख्यात आवलि काल तक वहाँ निर्लेपनस्थानोंका अभाव है। शंका-- वहाँ वे नहीं हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- क्योंकि, अपर्याप्त निर्वृत्तिकाल जघन्य भी संख्यात आवलिप्रमाण ही है ऐसा गुरुका उपदेश है। इससे जाना जाता है कि प्रथम समयसे लेकर संख्यात आवलिप्रमाण काल होने तक निर्लेपनस्थान नहीं होते । यवमध्य यह क्रियाविशेषण हैं, इससिए जिस प्रकार यवमध्य होता है उस प्रकार जाकर है ता० प्रती -णिगोदअपज्जत्तयाणं' इति पाठः । * अ० प्रती 'ट्राणाणि समभावादो' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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