Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 574
________________ ५, ६, ७०६ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया ( ५४१ सोलसदिए महादंडए जहण्णदिदि-उक्कस्सटिविविसेसेसु परूविज्जमाणेसु परूविदत्तादो । ण एस दोसो, बादर-सुहुर्माणगोदाणं जहण्णाउअप्पहुडि* जाव तेसि उक्कस्साउए त्ति ताव तत्थेव मरणजवमज्झ-आउअबंधजवमज्झ-णिव्वत्तिद्वाणजवमज्झाणि होति । अण्णस्स ण होंति ति परूविदे तेसिमण्णेसिमाउअवियप्पाणं संभालणमिदरेसिमाउआणं पमाणपरूवणाकरणादो। एवं ' जत्थेय मरइ जीवो' एदस्स गाहाए अत्थपरूवणा समत्ता। पुव्वं तेवीसवग्गणाओ परूविदाओ । तत्थ इमाओ गहणपाओग्गाओ इमाओ च अगहणपाओग्गाओ ति परूवणा कदा । संपहि इमाओ पंचण्हं सरीराणं गेज्झाओ इमाओ च अगेज्झाओ त्ति जाणावेंतो भूदबलिभडारओ उत्तरसुत्तकलावं परूवेदि-- तस्सेव बंधणिज्जस्स तत्थ इमाणि चत्तारि अणुयोगद्दाराणि णायक्वाणि भवंति- वग्गणपरूवणा वग्गणणिरूवणा पदेसट्टदा अप्पाबहुए त्ति ॥ ७०६ ॥ एवाणि चत्तारि चेव एत्थ अणुयोगद्दाराणि होति, अण्णेसिमसंभवादो। स्थिति और उत्कृष्ट स्थितिविशेषका कथन करने पर कथन हो ही जाता है ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, बादर निगोद और सूक्ष्म निगोद जीवोंकी जधन्य आयुसे लेकर उनकी उत्कृष्ट आयुके प्राप्त होने तक वहीं पर मरणयवमध्य, आयुबन्धयवमध्य और निर्वत्तिस्थानयवमध्य होते हैं अन्यके नहीं होते है ऐसा कथन करने पर उन अन्य जीवोंके आयुविकल्पों की सम्हाल करने के लिए इतर जीवोंकी आयु के प्रमाणका कथन किया है। इस प्रकार 'जत्थेय मरइ जीवो' इस गाथाकी अर्थप्ररूपणा समाप्त हुई। पहले तेईस प्रकारकी वर्गणाओंका कथन कर आये हैं। उनमें ये ग्रहणप्रायोग्य हैं और ये अग्रहणप्रायोग्य हैं यह प्ररूपणा की ही है। अब ये पाँच शरीरोंके ग्रहण योग्य हैं और ये ग्रहण योग्य नहीं हैं ऐसा जानते हुए भूतबलि भट्टाकर उत्तरसूत्रकलापका कथन करते हैं-- उसी बन्धनीयके वहाँ ये चार अनयोगद्वार ज्ञातव्य हैं--वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, प्रदेशार्थता और अल्पबहुत्व ।।७०६॥ यहां पर ये चार ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, अन्य अनुयोगद्वार यहां पर सम्भव नहीं हैं। ता० प्रतो ' जहण्णट्ठिदि - ( उक्कस्सट्ठिदि ) उक्कस्सट्ठिदि- ' इति पाठ।) * ता० प्रती - णिगोदाणं । जहण्णं ) नहण्णाउअप्पहुडि ' का० प्रती ‘णिगोदाणं जहण्णं जह___ण्णाउअप्पहुडि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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