Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 594
________________ ५, ६.७८८ योगद्दारे चूलिया ( ५६१ चेव आगच्छति त्ति ओरालिय सरीरवग्गणाणं थोवत्तं मणिदं त्ति के वि भणति । एसो अत्थो ण भल्लयो, तेजामरीरवग्गणादिसु एदस्स अत्यस्स पवृत्तीए अदंसणादो । ते पुठिवल्लत्थो चेव धेत्तव्वो । वे उव्वियसरी रदव्वग्गणाओ पदेसटुबाए असंखेज्जगुणाओ ||७८६ ॥ जेण जोगेण ओरालियसरीरट्ठमाहारवग्गणादो ओरालिय० वग्गणाओ एगसम - एणागमणपाओग्गाओ ताहितो तत्तो तम्हि चेव समए अण्णस्स जीवस्स तेणेव जोगेण वेव्वियसरी रट्ठमागममपाओग्गाओ असंखेज्जगुणाओ । कुदो ? सभावियादो । को गुणगारो ? सेढी असंखेज्जदिभागो । आहारसरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदाए असंखेज्जगुणाओ | ७८७ | तम्हि चेव समए तेणेव जोगेण आहारवग्गणादो आहारसरीरदव्ववग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ । कुदो ? साभावियादो को गुणगारो ? सेढीए असंखेज्जदिभागो । तेजासरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदाए अनंतगुणाओ || ७८८ ॥ होता है, इसलिए स्तोक वर्गणाओं में से स्तोक ही आते हैं, इसलिए औदारिकशरीरवर्गणायें स्तोक कही हैं ऐसा कितने ही आचार्य कथन करते हैं किन्तु यह अर्थ भला नहीं है, क्योंकि, तैजसशरीर वर्गणा आदिमें इस अर्थकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, इसलिए पहलेका अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए । वैक्रियिकशरीरद्रव्यवर्गणायें प्रदेशार्थताको अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ॥ ७८६ ॥ जिस योगसे औदारिकशरीरके लिए आहारवर्गणाओं में से औदारिकशरीरवर्गणायें एक समय में आगमनप्रायोग्य होती हैं उन्हीं वर्गणाओंमेंसे उसी समय में अन्य जीवके उसी योग से वैक्रियिकशरीर के लिए आगमनयोग्य वर्गणायें असंख्यातगुणी होती हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव हैं । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । आहारकशरीरद्रव्यवर्गणायें प्रदेशार्थताकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ।। ७८७ ॥ उसी समय में उसी योगसे आहारवर्गणा में से आनेवाली आहारकशरी द्रव्यवर्गणाय असंख्यातगुणी होती हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । तैजसशरीरद्रव्यवर्गणायें प्रदेशार्थताको अपेक्षा अनन्तगुणी हैं ॥७८८ * ता० प्रतो' असखे० गुणाओ ? ( मणदव्ववग्गणाओअसंखेज्नगुणाओ ) 1 कुदो इति पाठ: ] तथा का० प्रती कृतसंशोधनमवलोक्य म० प्रतावपि असंज्जगुणाओ मणदव्ववग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ | कुदो इति पाठ: प्रतिभाति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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