Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 579
________________ ५४६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ७२८ उवरि ति वृत्ते मज्झे इदि घेत्तव्वं, अण्णहा उरित्तासंभवादो। अथवा हेटिमअणंताणंतपदेसियवग्गणाणमुवरि आहारवग्गणा होंति त्ति घेत्तन्वं । एदेण सुत्तेण आहारवग्गणा एदेण सरूवेण परिणमदि त्ति जाणावेंतेण तदवढाणपदेसपरूवणा कदा । आहारदव्ववग्गणा णाम का ॥ ७२८ ।। केण लक्खणेण जाणिज्जदि, किं वा तत्तो णिप्पज्जमाणमिदि एदेण* सुत्तेण पुच्छा कदा। आहारदव्ववग्गणं तिण्णं सरीराणं गहणं पवत्तदि ॥ ७२९ ॥ जिस्से परमाणपोग्गलक्खंधे घेतण तिण्णं सरीराणं गहणं णिप्पत्ती पवत्तदि* होदि सा आहारदव्ववग्गणा णाम । तिण्णं सरीराणं णामणिद्देसळं गहणसरूवपरूवणठं च उत्तरसुत्तं भणदि ओरालिय-वेउविय-आहारसरीराणं जाणि दवाणि घेत्तण ओरालिय-वेउन्विय-आहारसरीरत्ताए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि दव्वाणि आहारवववग्गणा णाम ॥ ७३० ।। ___ ऊपर ऐसा कहने पर मध्य में ऐसा ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा ऊपरपना नहीं बन सकता है। अथवा अधस्तन अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाओंके ऊपर आहारवर्गणा होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इस सूत्रद्वारा आहारवर्गणा इस रूपसे परिणमन करती है ऐसा जानते हए उसके अवस्थानके प्रदेशका कथन किया है। आहारद्रव्यवर्गणा क्या है ।। ७२८ ॥ वह किस लक्षणसे जानी जाती है, अथवा उससे क्या निष्पन्न होता है इस प्रकार इस सूत्रद्वारा पृच्छा की गई है। आहारद्रव्यवर्गणा तीन शरीरोंके ग्रहण के लिए प्रवृत्त होती है ।। ७२९ ।। जिसके परमाणुपुद्गलस्कन्धको ग्रहण कर तीन शरीरोंका ग्रहण अर्थात् निष्पत्ति होती है वह आहारद्रव्यवर्गणा है। अब तीन शरीरोंके नामोंका निर्देश करने के लिए और ग्रहणके स्वरूपका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं--- ___ औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके जिन द्रव्योंको ग्रहणकर औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीररूपसे परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं उन द्रव्योंकी आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।। ७३० ।। । ता० प्रतौ णिप्फज्जमाणइनित ( णिप्पज्जमाणमिदि ) एदेण' का प्रती । णिप्फज्जमाण इज्जते एदेण' इति पाठः । * ता० प्रती 'गहणं णिवत्ती पवतदि ' का० प्रती 'गहण णिप्फत्ती पवत्तदि । इति पाठ 8 क'० प्रतो परिणमिदूण , इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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