Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 559
________________ ५२६ ) छवखंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ६ ६७७ सरीरस्स भासाणिवत्तिटाणाणि विसेसाहियाणि । वे उब्वियसरी रस्स मणणिवत्तिठाणेहितो आहारसरीरस्स मणिबत्तिट्राणाणि विसेसाहियाणि । सव्वत्थ विसेसपमाणमावलियाए असंखेज्जदिभागो। सरीरिदियपज्जत्तीण पुध परूवणं किमळं कदं? एवं सत्थाणअप्पाबहुअ चेव परत्थाणप्पाबहुअं ण होदि त्ति जाणावळं । सम्वेसिमेगवारेण णि देसे कीरमाणे पुण ओरालियसरीरस्स सरीरिदिय-आणापाणभासा-मणणिवत्तिट्टाणाणमरि वेउब्वियसरीरस्त सरीरिदिय-आणापाण भासा मण. णिवत्तिढाणागि किण्ण विसेसाहियाणि ति आसंका उप्पज्जज्ज । तणिराकरणट्ठ पुणो णिद्देसो कदो । ओरालियसरीरस्स पुण सरीरिदिय-आणापाण-भाता-मणिव्वत्तिट्ठाणाणि अण्णोण्णण सरिसाणि । कुदो एवं णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । एवं सव्वसरीरपज्जत्तीणं पि सत्थाणे सरिसत्तं भाणियन्वं । तदो अंतोमुत्तं गंतण तिष्णं सरीराणं णिल्लेवणट्ठाणाणि आवलियाए अखेसंज्जदिभागमेत्ताणि ।। ६७७ ।। तिण्णं सरीराणमुक्कस्लमणणिवत्तिट्टाणाणमुवरि अंतोमहत्तं गंतूण तिग्णं सरीराणं पिल्लेवणटाणाणि आवलियाए असंखेजविभागमेत्ताणि होति । कि पिल्लेवण विशेष अधिक हैं । वैक्रियिकशरीरके मनोनिर्वत्तिस्थानोंसे आहारकशरीरके मनोनिवत्तस्थान विशेष अधिक हैं । सर्वत्र विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । शंका- शरीरपर्याप्ति और इन्द्रियपर्याप्तिकी अलगसे प्ररूपणा किसलिए की है ? समाधान- यहां पर स्वस्थान अल्पबहुत्व ही है, परस्थान अल्पबहुत्व नहीं है इस बातका ज्ञान कराने के लिए उनकी अलगसे प्ररूपणा की है। सबका एक बार निर्देश करने पर पुनः औदारिकशरीरके शरीर, इन्द्रिय, आनापान, भाषा और मनोनिर्वत्तिस्थानोंके ऊपर वैक्रियिकशरीरके शरीर, इन्द्रिय, आनापान, भाषा और मनोनिवृत्तिस्थान क्यों विशेष अधिक नहीं हैं ऐसी आंशका उत्पन्न हो सकती थी अतः उसका निराकरण करने के लिए फिरसे निर्देश किया है। परन्तु औदारिकशरीरके शरीर इन्द्रिय, आनापान, भाषा और मनोनिर्वत्तिस्थान परस्पर में समान हैं। शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है । इसीप्रकार सब शरीरोंकी पर्याप्तियोंकी भी स्वस्थानमें समानता कहलानी चाहिए । उसके बाद अन्तर्महर्त जाकर तीन शरीरोंके निर्लेपनस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ।। ६७७ ।। तीन शरीरोंके उत्कृष्ट मनोनिर्वृत्तिस्थानोंके ऊपर अन्तर्मुहुर्त जाकर तीन शरीरों के निर्ले - पनस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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