Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 542
________________ ५, ६, ६५३ ) योगद्दारे चूलिया (५०९ वणट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्ताणि ॥ ६५३ ॥ तदो इदि जिसो मिट्ठे कदो ? उप्पण्णपढमसमए चेव चत्तारि अपज्जत्तीओ अक्क मेण आढप्पतित्ति जाणावणट्ठे कदो । उप्पण्णपढमसमए चेव चत्तारि अपज्जत्तीओ अक्कमेणाढाविय उवरि अंतोमृहुत्तं गंतून सुहुमणिगोदअपज्जत्ताणं वृत्तविहाणेण कमेण समाजिय तेसि पिल्लेविज्जमाणद्वाणाणि आवलि० असंखे ० भागमेत्ताणि । तेसु द्वाणेसु विजीवा जवमज्झागारेण होंति त्ति एदेण सुत्तेण जाणाविदं । सेसं जहा सुहुमणिगोदअपज्जत जिल्लेवणट्ठाणाणं परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा । णवरि सुहुमणिगोदजवमज्झस्स पढमणिल्लेवणद्वाणादो हेट्ठा आवलियाए असंखे० भागमेत्ताणि पिल्लेवणद्वाणि ओसरिण बादरणिगोदअपज्जतपढमणिल्लेवणद्वाणं होदि । सुहुमणिगोदअपज्जत निल्लेवणटुणजत्रमज्झादो बादरणिगोदअपज्जत्तणिल्लेवणट्ठाणजवमज्झं पुण्वं चेव आरंभदिति भणिदं होदि । सुहुमणिगोदजवमज्झस्स चरिमणिल्लेवणद्वाणादो आवलिया असंखे० भागमेत्तणिल्लेवणद्वाणाणि उवरि गंतून बादरणिगोदअपज्जत्तस्स चरिमजिल्लेवणद्वाणं होदि । सुहुमणिगोदअपज्जत्तजवमज्झादो आवलि० असंखे ० भागमेत्तजिल्लेद्वाणाणि उवरि गंतूण बादरणिगोदअपज्जत्तजवमज्झं होदि । एदं सुत्तेण भागप्रमाण निर्लेपनस्थान होते हैं ।। ६५३ ॥ शंका- तदो यह निर्देश किसलिए किया है ? समाधान -- उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही चार अपर्याप्तियोंको युगपत् प्रारम्भ करता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए तदो यह निर्देश किया है । उत्पन्न होने के प्रथम समयमें ही चार अपर्याप्तियोंको युगपत् आरम्भ करके ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंके उक्त विधि से क्रमसे समाप्त करके उनके निर्लेपस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण और उन स्थानों में स्थित जीव यवमध्यके आकारसे होते हैं इस बातका इस सूत्र द्वारा ज्ञान कराया गया है । शेष जिस प्रकार सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंके निर्लेपनस्थानोंका कथन किया है उस प्रकार यहां भी करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म निगोद यवमध्यके प्रथम निर्लेपनस्थानसे नीचे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान उतरकर बादर निगोद अपर्याप्तकोंका प्रथम निर्लेपनस्थान होता है । सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त के निर्लेपनस्थान यवमध्यसे बादर निगोद अपर्याप्तकका निर्लेपनस्थान यवमध्य पहले ही आरंभ होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके अन्तिम निर्लेपनस्थान से आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपन स्थान ऊपर जाकर बादर निगोद अपर्याप्तका अंतिम निर्लेपनस्थान होता है। सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके यवमध्यसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान ऊपर जाकर बादर निगोद अपर्याप्तकोंका यवमध्य होता है । ★ ता० प्रतो' आढवंति इति पाठः । ४) ता० का० प्रत्यो।' चरिमगिल्लेवणद्वाणं होदि ] सुहु मणिगोद अपज्जत्तजवमज्झादो एवं ' इति पाठ ! 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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