Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

Previous | Next

Page 538
________________ बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया (५०५ जिसेयखद्दाभवग्गहणस्सुवरि समउत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तणिव्वत्तिटाणाणि गंतूण सुहमणिगोदअपज्जत्ताणमुक्कस्साउअं होदि । सा च अपज्जत्तणिवत्ती अंतोमहुत्तिया, पढमसमयप्पहुडि सव्वकालग्गहणादो । घादखुद्दाभवग्गहणचरिमसमयप्पहुडि जाव णिसेयखुद्दाभवग्गहणचरिमसमओ ति ताव गिसेय. खद्दाभवग्गहणस्त संखेज्जेसु भागेसु मरणजवमज्झं होदि, तमेत्थ किग्ण परूविदं ? " एस दोसो, जवमज्झमिदि अणवट्टदे तेणेवं संबंधो कायवो जहणिया अपज्जत्तणिवत्ती जवमज्झं होदि त्ति । तेण जवमज्झस्स एत्थ अस्थित्तं परविदं चेव । हेटिल्लए विभागजहणियाए अपज्जत्तणिप्पत्ती जवमझं होवि ति, एवमदिक्कते सुत्ते वि संबंधो कायवो, जवमज्झस्स मज्झदीवयत्तेण अवटाणवलंभादो । एसा सव्वा वि परूवणा बादरणिगोदाणं । संपहि सुहमणिगोदाणं परूवण?मत्तरसुत्तं भणदि । तं चेव सुहमणिगोवजीवाणं जहणिया अपज्जत्तणिवत्ती । ६४९ । तम्हि चेव बादरणिगोदणिवत्तिजवमज्झस्स गन्भे बादरजवमज्झस्स पढम-- चरिमसमए आवलियाए असंखेज्जभागेण अपावेदूण सुहमणिगोदजीवाणं जहणिया अपज्जत्त णिवत्ती होदि । निषेकक्षुल्लक भवग्रहणके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वत्तिस्थान जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट आयु होती है। वह अपर्याप्तनिर्वत्ति अन्तर्मुहुर्तप्रमाण होती है, क्योंकि, यहां पर प्रथम समयसे लेकर समस्त कालका ग्रहण किया है। शंका-- घात क्षुल्लक भवग्रहणके प्रथम समयसे लेकर निषेक क्षुल्लक भवग्रहणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक उसमें निषेक क्षुल्लक भवग्रहणके संख्यात बहुभागोंमें मरणयवमध्य होता है उसका यहां पर कथन क्यों नहीं किया ? समाधान --- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यवमध्य पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिए इस प्रकार सम्बन्ध कर लेना चाहिए कि जघन्य अपर्याप्त निर्वत्ति यवमध्य होता है । इसलिए यवमध्यका यहाँ पर अस्तित्व कहा ही है। अधस्तन भागमें जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति यवमध्य होता है। इसी प्रकार पिछले सूत्र में भी सम्बन्ध करना चाहिए, क्योंकि, यवमध्यका मध्यदीपकरूपसे अवस्थान उपलब्ध होता है। ___ यह सब प्ररूपणा बादर निगोदोंकी है। अब सूक्ष्म निगोदोंका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -- वही सूक्ष्म निगोद जीवोंकी जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति है । ६४९ । उसी बादर निगोद निर्वृत्ति यवमध्यके भीतर बादर यवमध्यके प्रथम और अन्तिम समयको आवलिके असंख्यातवें भागद्वारा प्राप्त न कर सूक्ष्म निगोद जीवोंकी जघन्य अपर्याप्त निवृत्ति होती है । O ता० प्रती -मिदि वृत्ते अणुवट्टदे नेणेव मंबंधो ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634