Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 508
________________ बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया ( ४७५ सांतरणिरंतरसमए वक्कमणकालो विसेसाहिओ ॥ ५९० ॥ केत्तियमेत्तेण ? बिदियादिवक्कमणकंदयकालमत्तेण । एदेण सुत्तेण सूचिदविसेसप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । सव्वत्थोवो सांतरसमयवक्कमणकालविसेसो ॥ ५९१ ॥ उक्कस्ससांतर उवक्कमणकालम्मि जहण्णसांतर उवक्कमणकाले सोहिदे जो सुद्धसेसो सो सांतरसमयवक्कमणकालविसेसो णाम । सो थोवो होदि । णिरंतरसमयवक्कमणकालविसेसो असंखेज्जगणो । ५९२ ॥ पढमतणवक्कमणकंदयं जिरंतरसमयवक्क्रमणकालो णाम । सो जहण्णो वि अस्थि उक्कस्सो वि। जहण्णकाले उक्कस्सकालादो* सोहिदे जिरंतरसमयवक्कमणकालविसेसो होदि । सो पुविल्लविसेसादो असंखेज्जगणो। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जविभागो। सांतरणिरंतरवक्कमणकालविसेसो विसेसाहिओ ॥ ५९३ ॥ केत्तियमेत्तेण? सांतरवक्कमणकालविसेसमेतेण । बिदियादिवक्कमणकंदयाणमुक्कस्सकालम्मि समुदिदम्मि तेसि चेव जहग्णकालसमूहे सोहिदे सुद्धसेसो वक्कमण सान्त रनिरन्तर समयमें उपक्रमणकाल विशेष अधिक है ॥ ५९० ॥ कितना अधिक है ? द्वितीय आदि उपक्रमण काण्डकोंका जितना काल है उतना अधिक है । अब इस सूत्र द्वारा सूचित होनेवाले विशेष अल्पबहुत्वको बतलाते हैं-- सान्तर समयमें उपक्रमण कालविशेष सबसे स्तोक है । ५९१ । उत्कृष्ट सान्तर उपक्रमण कालमेंसे जघन्य सान्तर उपक्रमण कालको कम कर देने पर जो शेष रहता है उसे सान्तर समय सम्बन्धी उपक्रमण कालविशेष कहते हैं। वह स्तोक है। निरन्तर समयमें उपक्रमण कालविशेष असंख्यातगुणा है । ५९२ । प्रथमतन उपक्रमणकाण्डकका नाम निरन्तर समय उमक्रमण काल है। वह जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। उत्कृष्ट कालमेंसे जघन्य कालके कम करने पर निरन्तर समय उपक्रमणकाल विशेष होता है। वह पहलेके विशेषसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। सांतर-निरन्तर उपक्रमण कालविशेष विशेष अधिक है। ५९३ । कितना अधिक है ? सान्तय उपक्रमण कालविशेषका जितना प्रमाण हैं उतना अधिक है। द्वितीय आदि उपक्रमण काण्डकोंके समुदित उत्कृष्ट काल में से जघन्य काल समहके कम कर देने ४ ता० का. प्रत्योः 'णिरंतरवक्कमण-' इति पाठः । * अ. का. प्रत्यो 'जहाणेव उक्करमकालादो' इति पाठः) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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