Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 506
________________ ५, ६. ५८६ ) बंधणागुयोगद्दारे चूलिया ४७३ __संपहि एदेण सूचिदपमाणसेडीओ भणिस्सामो- पढमसमए वक्कमति जीवा केवडिया ? अणंता । विदियसमए वक्कमति जीवा केवडिया? अणंता । एवं णेयव्वं जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तकालो त्ति । तदो एक्कं वा दो वा समयं आदि कादूण अंतरं होदि जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तकालो त्ति । तदो उवरिमसमए अणंता जीवा वक्कमति । एवमेगसमयमादि कादूण वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तकालो त्ति । एवं सांतरणिरंतरकमेण वकमाणजीवाणं पमाणं वत्तव्वं जाव वक्कमणकाल चरिमसमओ त्ति । वक्कमणकालपमाण पुण अंतोमहत्तं, तत्तो उरि उप्पत्तिसंभवाभावादो। पमाणपरूवणा गदा । ___ सेडिपरूवणा दुविहा- अणंतरोणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधा एक्किस्से पुलवियाए एगसरीरे वा पढ मसपए वक्कमति जीवा बहुआ। विदिया समए वक्कमति जे जीवा ते असंखेज्जगणहीणा । तदियसमए जे वक्कमति जीवा ते असंखेज्जगणहीणा । एवं आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपढमकंदयचरिमसमओ त्ति । तदो आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तमंतरं होदि । तदो विदियकंदयआदिसमए वक्कमति जीवा* पढमकंदयचरिमसमए वक्कमदिजीवेहितोल असंखेज्जगुणहीणा । एवं णिरंतरं णेयव्वं जाव विदियिकंदयचरिमसमओ त्ति । एवमावलियाए असंखेज्ज ___ अब इसके द्वारा सूचित होनेवाली प्रमाणश्रेणियोंका कथन करेंगे-- प्रथम समयम उत्पन्न होनेवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। दूसरे समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव कितने हैं? अनन्त हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे आवलिके असंख्यातवेंभागप्रमाण काल तक ले जाना चाहिए। उसके बाद एक या दो समयसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ल तक अन्तर होता है। उसके अगले समयमें अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार एक समयसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक जीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सान्तर-निरन्तर क्रमसे उत्कृष्ट कालके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण कहना चाहिए। तथा उपक्रमणकालका प्रमाण अन्तर्मुहुर्त है, क्योंकि, उसके आगे उत्पत्ति सम्भव नहीं है । इस प्रकार प्रमाण प्ररूपणा समाप्त हुई। श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है- अनंतरोपनिधा और परंपरोपनिधा। उनमेंसे अनंतरोपनिधा की अपेक्षा एक पुलविमें या एक शरीरमें प्रथम समय में बहुत जीव उत्पन्न होते हैं। दूसरे समयम जो जीव उत्पन्न होते हैं वे असंख्यातगुणे हीन होते हैं। तीसरे समय में जो जीव उत्पन्न होते हैं वे असंख्यातगुणहीन होते हैं। इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रथम कांडकके अन्तिम समय तक जानना चाहिए। उसके बाद आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अंतर होता है। उसके बाद दूसरे कांडकके प्रथम समयमें जो जीव उत्पन्न होते हैं वे प्रथम कांडकके अंतिम समयमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंसे असंख्यातगणे हीन होते हैं। इस प्रकार दूसरे कांडकके अंतिम समय तक निरन्तर क्रमसे ले जाना चाहिए। इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण 8 अ० का०प्रत्यो: ' वक्कमणं जीवाण इति पाठः । ता० प्रती 'जावुक्कस्सकाल-इति पाठ। * ता० प्रती 'जीवा असंखेज्जगुणहीगा' इति पाठः । * ता० प्रतो 'वक्कमति ( त ) जीवा' इति पाठ 18 ता० प्रती 'वक्कमदि (मंत) जीवेहिती ' अ. का. प्रत्यो 'वक्कमिदिजीवेहितो' इति पाठ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org.

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