Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 534
________________ ५, ६, ६४४ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया ५०१ ) एत्तो सब्वजीवेस महादंडओ कायमेवो भवदि ॥ ६४३ ॥ सव्वत्थोवं खुद्दाभवग्गहणं । तं तिधा विहत्तं-हेल्लिए तिभाए सव्वजीवाणं जहणिया अपज्जत्तणिवत्ती। मज्झिल्लए तिभाए णत्थि आवासयाणि । उवरिल्लए तिभागे आउअबंधो जवमज्झं समिलामज्झे ति वुच्चदि ॥ ६४४ ॥ ___जं सव्वत्थोवं खुद्दाभवग्गहणं तं तिधिहत्तं कायव्वं । किमळं तिधा विहज्जदे ? तत्थ तिसु भागेसु आवासयपरूवणठें। सव्वजहण्णखुद्दाभवग्गहणं त्ति वुत्ते घातखुद्दाभवग्गहणं घेत्तव्वं, अण्णत्थ आउअस्स खुद्दभावाणुववत्तीदो। हेट्ठिलए तिभागे सव्वजीवाणं जहणिया अपज्जत्तणिव्वत्ति त्ति भणिदे जम्हि बादर-सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तेहि आहार-सरीरिदिय-आणपाणचत्तारिअपज्जत्तीओ णिव्वत्तिज्जंति जवमज्झसरूवेण सो पढमतिभागो णाम। उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि पढमतिभागस्त संखेज्जदिभागमेत मद्धाणमवरि गंतूण जेण सुहम-बादरणिगोदअपज्जत्ताणं आहार-सरीरिदिय-आणपाणपज्जत्तीओ समाणिज्जति जवसरूवेण ठ्ठिदजीवेहि तेण हेठिल्लए तिभागे सव्वजीवाणं जहणिया यहांसे आगे सब जीवोंमें महादण्डक करना चाहिए ॥ ६४३ ।। क्षुल्लकभवग्रहण सबसे स्तोक है। वह तीन प्रकारका है- अधस्तन विभागम सब जीवोंकी जघन्य अपर्याप्तनिर्वृत्ति होती है, मध्यम त्रिभागमें आवश्यक नहीं होते और उपरिम त्रिभागमे यवमध्य होता है। उसे शमिलायवमध्य कहा जाता है॥ ६४४ ॥ जो सबसे स्तोक क्षुल्लकभवग्रहण है उसके तीन भेद करने चाहिए। शंका - उसके तीनों भेद किसलिए करते हैं ? । समाधान- उसके तीनों भेदों में आवश्यकोंका कथन करने के लिए उसके तीन भेद करते हैं। सबसे जघन्य क्षुल्लकभवग्रहण ऐसा कहनेपर घातक्षुल्लक भवग्रहण लेना चाहिए, क्योंकि, अन्यत्र आयुका क्षुल्लकपना नहीं बन सकता है। अधस्तन विभागमें सब जीवोंको जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति ऐसा कहनेपर जिसमें बादर निगोद अपर्याप्त जीव और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास इन चार अपर्याप्तिकोंको यवमध्यरूपसे रचते हैं वह प्रथम विभाग है। शंका – उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर प्रथम विभागके संख्यातवें भागप्रमाण स्थान ऊपर जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त और बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंकी आहार, शरीर,इन्द्रिय और श्वासोच्छावास पर्याप्तियां यतः यवमध्यरूपसे स्थित जीवोंके द्वारा समाप्त की जाती हैं अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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