Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 528
________________ ५, ६, ६४१ ) घाणुयोगद्दारे चूलिया ( ४९५ पत्थडाणि गच्छानि गुम्माणि * वल्लीणि लदाणि तणवणफदिआदीणि ।। ६४१ ॥ धम्मादिसत्तणिरय पुढवीओ ईसप्पभारपुढवीए सह अट्ठ पुढवीओ महाखंधस्स द्वाणाणि होति । सिलामयपव्वएसु उक्किण्णवावी कूण तलाय - जिणघरावीणि टंकाणि णाम । मेरु- कुलसेल - बिझ-सज्झादिपव्वया कूडाणि णाम । वलहि-कूडविवज्जिया सुरणरावासा भवणाणि णाम । वलहि-कूडसमणिदा पासादा विमाणाणि णाम । उ आदीणि विमणानिदियाणि णाम । सग्गलोअसे डिबध्द-पइण्णया विमाणपत्थडणि नाम । णिरयसे डिबद्धाणि णिरयाणि णाम । सेडिबद्धाणं मज्झिमणिरयावासा णिरइंदयाणि णाम । तत्थतणपइण्णया निरयपत्थडाणि गाम । गच्छ गुम्म तणवणाफ दि लदावल्लीणमत्थो जाणिय वत्तव्वो । एदाणि महाक्खंधद्वाणाणि । एवेण महाखंधस्स इंदिय गेज्झाणमवयवाणं परूवणा कदा । जे पुण इंदियाणमगेज्झा सुहुमा महाक्खंधावयवा एदेहि समवेदा ते वि आगमचक्खूहि दट्टव्वा । सचित्तवग्गणाओ एवं जहण्णाओ एवं च उक्कस्साओ । महाखंधवग्गणाए जहण्णुक्कस्तभावा एवं होंति त्ति जाणावट्ठ उत्तरसुत्तं भणवि नरकेन्द्रक, नरक प्रस्तर, गच्छ, गुल्म, वल्ली, लता और तृणवनस्पति आदि महास्कन्धस्थान हैं । ६४१ ।। ईषत्प्राग्भार पृथिवी के साथ धर्मा आदि सात नरक पृथिवियाँ मिलकर आठ पृथि - वियाँ महास्कन्धके स्थान हैं। शिलामय पर्वतों में उकीरे गए वापी, कुआ, तालाब और जिनघर आदि टङ्क कहलाते हैं। मेरुरवंत, कुलपर्वत, विन्ध्यपर्वत और सह्यपर्वत आदि कूट कहलाते 1 वलभि और कूटसे रहित देवों और मनुष्योंके आवास भवन कहलाते हैं । वलभि और कूटसे युक्त प्रासाद विमान कहलाते हैं । उडु आदिक विमान इन्द्रक कहलाते हैं । स्वर्गलोकके श्रेणिबद्ध और प्रकीर्णक विमान विमानप्रस्तर कहलाते हैं । नरकके श्रेणिबद्ध नरक कहलाते हैं । श्रेणिबद्धोंके मध्य में जो नरकवास हैं वे नरकेन्द्रक कहलाते हैं । तथा वहाँ के प्रकीर्णक नरकप्रस्तर कहलाते हैं । गच्छ, गुल्म, तृण वनस्पति, लता और वल्लीका अर्थ जानकर कहना चाहिए। ये महास्कन्धस्थान हैं । इस सूत्र द्वारा महास्कन्धके इन्द्रियग्राह्य अवयवोंका कथन किया है । परन्तु जो इन्द्रिय अग्राह्य सूक्ष्म महास्कन्धके अवयव हैं जो कि निगोदोंसे समवेत हैं वे भी आगमचक्षुओंसे जानने चाहिए। सचित्तवर्गणायें इस प्रकार जघन्य और इस प्रकार उत्कृष्ट होती हैं । महास्कन्धवर्गणामें जघन्य और उत्कृष्टभाव इस प्रकार होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं- * अ० का० प्रत्योः गुणाणि' इति पाठा | XxX अ० का० प्रत्योः ' धम्मादिसव्वणिरय-' इति पाठा | Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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