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२४६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १५३ विभंगणाणी मणपज्जवणाणी अस्थि जीवा तिसरीरा चदुसरीरा ॥१५३॥
मणपज्जवणाणीसु आहारसरीरस्स उदयाभावादो पत्थि चदुसरीरत्तं ? ण, विउव्वणमस्सिदण दोसु णाणेसु चदुसरीरत्तुवलंभादो । णत्थि विसरीरा, अपज्जत्तकाले एदेसि णाणाणमभावादो।
आभिणी-सुद-ओहिणाणी ओघं ।१५४॥ विसरीर-तिसरीर-चदुसरीरभावेण तत्तो भेदाभावादो। केवलणाणी अस्थि जीवा तिसरीरा ।। १५५॥ सुगम। संजमाणुवादेण संजदा सामाइय-छेदोवढावणसुद्धिसंजदा संजदासजदा अस्थि जीवा तिसरीरा चदुसरीरा ॥१५६॥ विसरीरा णत्थि विग्गहगदीए अणुव्वय-महव्वयाणमभावादो।
परिहारविसद्धिसंजदा सहमसांपराइयसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा अस्थि जीवा तिसरीरा ॥१५७।।
विभग्नज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले होते हैं ॥१५३॥
___ शंका- मन.पर्ययज्ञानवाले जीवोंमे आहारकशरीरका उदय नहीं होने से चार शरीरपना नहीं बनता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि विक्रियाका आश्रय लेकर उत्त दो ज्ञानोंमें चार शरीरपनेकी उपलब्धि होती है।
मात्र इनमें दो शरीरवाले जीव नहीं है, क्योंकि अपर्याप्त कालमें इन ज्ञानोंका अभाव है।
आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें ओघके समान भंग है ॥१५४॥ __ क्योंकि दो शरीर, तीन शरीर और चार शरीरपनेकी अपेक्षा ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है।
केवलज्ञानी जीव तीन शरीरवाले होते हैं ॥१५५॥ यह सूत्र सुगम है।
संयम मार्गणाके अनुवादसे संयत, सामायिकशुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीव तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले होते हैं ॥१५६।।
दो शरीरवाले नहीं होते, क्योंकि विग्रहगतिमें अणुव्रतों और महाव्रतों का अभाव है।
परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत, और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीव तीन शरीरवाले होते हैं ॥१५७॥
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