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छक्खंडागमे वगणा-खंडे
( ५, ६, ४९०
कालेण वि होदव्वं ? होदु णाम, आहारमिस्तकायजोगदाए तस्स अपज्जत्तभावब्भुवगमादो। जदि एवं तो भवस्स पढमसमए उववाबजोगेण होदव्वं ? सच्चमेदं, इच्छिज्जमाणतादो । जवि एवं तो पमत्तसंजदस्स दो जीवसमासा पावेंति ? होदु एवं पि: विरोहाभावादो। ण च जीवट्ठाणसुत्तेण सह विरोहो, तत्थ ओरालियसरीरे पज्जत्ते संते चेव संजमो उप्पज्जदि ण तम्मि अपज्जत्ते इदि मणम्मि कादण अपज्जत्तजीवसमासपडिसेहादो । सेसं सुगमं ।
तवदिरित्तमजहण्णं ।। ४९० ॥ एदं पि सुगमं ।
जहण्णपदेण तेजासरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स ॥ ४९१ ॥ सुगमं ।
अण्णदरस्स सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स एयंताणुवड्ढीए वड्ढमाणस्स जहण्णजोगिस्स तस्स तेयासरीरस्स जहण्णयं पदेसगं ॥ ४९२ ।।
शंका-- यदि आहारकशरीरका ग्रहण भव है तो वहाँ पर अपर्याप्त काल भी होना चाहिए।
समाधान-- होओ, क्योंकि, आहारकमिश्रकाययोगके कालके भीतर उसका अपर्याप्तभाव स्वीकार किया गया है।
शंका-- यदि ऐसा है तो भवके प्रथम समयमें उपपादयोग होना चाहिए ? समाधान-- यह कहना सत्य है, क्योंकि, यह बात हमें इष्ट है । शंका-- यदि ऐसा है तो प्रमत्तसंयत जीवके दो जीवसमास प्राप्त होते हैं ?
समाधान-- ऐसा भी होओ, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं है । ऐसा मानने पर जीवस्थानसूत्रके साथ विरोध नहीं आता, क्योंकि, वहाँ पर औदारिक शरीरके पर्याप्त होने पर ही संयम होता है, औदारिकशरीरके अपर्याप्त रहते हुए नहीं होता ऐसा मनमें विचार कर अपर्याप्त जीवसमासका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है।
उससे व्यवितरिक्त अजघन्य प्रदेशान है ॥ ४९० ।।
यह सूत्र भी सुगम है। जघन्य पदकी अपेक्षा तैजसशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है ।४९११
यह सूत्र सुगम है।
एकान्तानवद्धि योगसे वृद्धिको प्राप्त होनेवाला और जघन्य योगसे युक्त जो अन्यतर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव है वह तैजसशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४९२ ।।
४ ता० प्रती एवं गि' इति पाठः ।
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