________________
५, ६, ५४३ )
घाणुयोगद्दारे सरीरविस्सा सुवचयपरूवणा
( ४५३
अनंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणी अनंतगुणहाणी ॥ ५४२ ॥
अपणादो अर्णत भागहाणीए अंगूलस्स असंखे० भागमेत्तमद्वाणं गंतूण सलागाणमसंखेज्जभागहाणी होदि । तदो असंखेज्जभागहाणीए अंगुलस्स असंखे ०. भागमेत्तमद्वाणं उवरि गंतूण संखेज्जभागहाणी होदि । तदो संखेज्जभागहाणीए अंगुलस्स असंखे० भागमेत्तमद्वाणमुवरि गंतूण संखेज्जगुणहाणी होदि । तदो संखेज्जगुणहाणीए अंगुलस्स असंखे० भागमेत्तमद्वाणमुवरि गंतूण असंखेज्जगुणहाणी होदि । तदो असंखेज्जगुणहाणीए अंगुलस्स असंखे० भागमेत्तमद्वाणमुवरि गंतॄण अनंत गुणहाणी होदि । पुणो अनंतगुणहाणीए अंगुलस्स असंखे० भागमेत्तमद्वाणमुवरि गंतॄण द्वाणाणि समप्पंति ।
एवं चदुष्णं सरीराणं ॥ ५४३ ।।
जहा ओरालियसरीरस्स परूविदं तहा सेससरीराणं पि परूवेयव्वं, विसेसाभावादो | संपहि जीवादी अवेदाणं पंचसरीरपोग्गलाणं विस्तासुवचयस्स माहप्प --- परूवणट्ठ उवरिममप्पाबहुअं भणदि
ओरालियसरीरस्स जहष्णयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सा
हानि होती है- अनंतभागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अनन्तगुणहानि । ५४२ ।
विवक्षित स्थान से अनन्तभागहानिके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर शलाकाओं की असंख्यात भागहानि होती है । फिर वहाँसे आगे असंख्यात भागहानिके अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर संख्यातभागहानि होती है । पुनः वहाँसे आगे संख्यातभागहानिके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर संख्यातगुणहानि होती है । पुनः वहाँ से आगे संख्यातगुणहानिके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर असंख्यातगुणहानि होती है । पुनः वहाँसे आगे अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाणं स्थान जाकर अनन्तगुणहानि होती है । पुनः अनन्तगुणहानिके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान आगे जाकर स्थान समाप्त होते हैं ।
इसी प्रकार चार शरीरोंकी अपेक्षा प्ररूपणा करनी चाहिए । ५४३ ।
जिस प्रकार औदारिक शरीरका कथन किया है उसी प्रकार शेष शरीरोंका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि, उससे यहाँ पर कोई विशेषता नहीं है ।
अब जीवसे अवेदरूप पाँच शरीरपुद्गलोंके विस्रसोपचयके माहात्म्यका कथत करने के लिए आगेका अल्पबहुत्व कहते हैं---
जघन्य औदारिकशरीरका जघन्य पदमें जघन्य वित्रसोपचय सबसे स्तोक
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org