Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 500
________________ ५, ६, ५८० ) बंधणाणुयोगद्दार सरीरविस्सासुवचयपरूवणा (४६७ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । जेणेवं महामन्छसरीरे अणंता जीवा अणंताणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा जहण्णबादरणिगोदवग्गणजीवेहितो असंखेज्जगुणा अस्थि तेण विस्सासुवचएण एत्थ तत्तो अणंतगणेण होदव्वमिवि जहण्ण बादरणिगोदवग्गणजीवेहितो महामच्छदेहदिवजीवा* असंखेज्जगणा चेव, बादरणिगोदवग्गणाए एगणिगोदसरीरे वि सम्वजीवरासीए असंखेज्जदिभागमेत्तजीवोवलंभादो। ण च तत्थ तिस्से अणंतिमभागमेत्तजीवा होंति, बादरणिगोदजहण्णवग्गणादो उक्कस्ससुहमणिगो. दवग्गणाए अणंतगुणत्तप्पसंगादो । ण च एवं, पुवुत्तगुणगारेण सह विरोहादो । जहणबादरणिगोदवग्गणाए जहण्णविस्तासुवचयादो उक्कस्ससुहमणिगोदवग्गणाए उक्कस्सविस्सासुवचओ वि असंखेज्जगणो चेव, अग्णहा जहण्णबादरणिगोदवग्गणादो उक्कस्ससुहुमणिगोदवग्गणाए अणंतगणत्तप्पसंगादो। ण च महामच्छ उक्कस्सविस्सासुवचओ अणंतगुणो होदि, जहण्णवादरणिगोदवग्गणादो उकक्स्ससुहमणिगोदवग्गणाए अणंतगणत्तप्पसंगादो । तम्हा एदेण जीवेण अप्पाबहुएण महामच्छदेह उक्कस्सविस्सासुवचयस्स अणंतगुणत्तं ण साहिज्जदि त्ति सिद्धं? एत्थ परिहारो उच्चदे ! तं जहा- एसो महामच्छाहारो पोग्गलकलावो पत्तेयसरीरबादर-सुहमणिगोद - वग्गणसमूहमेत्तो ण होदि किंतु तस्स पुट्ठीए संभूदउट्ठियकलावो ततो ये सूत्र सुगम है। शंका-- चूंकि यह बात हैं कि महामत्स्यके शरीरमें अनन्त जीव अनन्तानन्त विस्रसोपचयों से उपचित होते हैं तो भी जवन्य बादरनिगोदवर्गणाके जीवोंसे असंख्यातगुणे होते हैं, इसलिए विस्रसोपचयको यहाँपर उनसे अनन्तगुणा होना चाहिए, अतः जघन्य बादरनिगोद वर्गणाके जीवोंसे महामत्स्यके शरीरमें स्थित जीव असंख्यातगुणे ही होते हैं, क्योंकि, बादरनिगोदवर्गणाके एक निगोदशरीरमें भी सब जीवराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव उपलब्ध होते हैं। वहाँ उसके अनन्तवें भागप्रमाण जीव होते हैं यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर जघन्य बादरनिगोदवर्गणासे उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणाके अनन्तगुणे होने का प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा है नहीं. क्योंकि, ऐसा मानने पर पूर्वोक्त गुणकारके साथ विरोध आता है। जघन्य बादरनिगोदवर्गणाके जघन्य विनसोपचयसे उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदवर्गणाका उत्कृष्ट विस्रसोपचय भी असंख्यातगुणा ही है, अन्यथा जघन्य बादरनिगोदवर्गणासे उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदवगणाके अनन्तगुणे होने का प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु महामत्स्यका उत्कृष्ट विनसोपचय अनन्तगुणा नहीं है, क्योंकि, जघन्य बादरनिगोदवर्गणासे उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदवर्गणाके अनन्तगुणे होने का प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिए इस जीव अल्पबहुत्वसे महामत्स्यके देहका उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा नहीं सिद्ध किया जा सकता है यह बात सिद्ध होती है ? समाधान-- यहाँ इस शंकाका परिहार करते हैं। यथा- यह महामत्स्यका आहाररूप जो पुद्गलकलाप है वह प्रत्येकशरीर, बादरनिगोदवर्गणा और सूक्ष्म निगोदवर्गणाका समुदायमात्र नहीं होता है किन्तु उसकी पीठपर आकर जमी हुई जो मिट्टीका प्रचय है वह और उसके कारण * ता० प्रती 'उचिदा जहण्णबादरणिगोदवग्गणजी।हितो महामच्छदेहट्रिदजीवा ' इति पाठः। ४ ता० का. प्रत्योः 'अणंत गणो होदि । तम्हा एदेण ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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