Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 501
________________ ४६८ ) पखंडागमे वग्गणा ड ( ५, ६,५८० समुच्छिद पत्थर सज्जज्जुण-निब कथं बंब- जंबु - जंबीर- हरि-हरिणादओ च विस्स सोवच - यंत भूदा टुव्वा ण च तत्थ मट्टियादीणमुत्पत्ती असिद्धा, सइलोदए पदिपग्णा वि सिलाभावेण परिणामदंसणादो सुत्तिवुडपदिदोर्दाबदृणं मुत्ताहलागारेण परिणामवलंभादो । ण च तत्थ सम्मुच्छिमपंचिदियजीवाणमुप्पत्ती असिद्धा, पाउसपारंभवासजलधरनिसंबंधेण भेगुंदर मच्छ- कच्छवादीणमुप्पत्तिदंसणादो। ण च एदेसि विस्सासुवचयत्तमसिद्धं, कम्मोदयमंतरेणुवचिदाणं विस्सासुवचयत्तं पडि विरोहा भावादो। ण च एवेसि महामच्छत्तमसिद्धं, माणुसजड रुप्पण्णगंडवालाणं पि माणुसववएसुवलंभादो । सव्वे सिमेदेसि गहणादो सिद्धं उक्कस्तविस्सासुवचयस्स अनंतगुणत्तं । अथवा ओरालियतेजा - कम्मइयपरमाणुपोग्गलाणं बंधणगुणेण जे एयबंधणबद्धा पोग्गला विस्सासुवचयसणिया तेसि सचित्तवग्गणाणं अंतब्भावो होदि, जीवेण सह तेसि मण्णोष्णानुगयत्तदंसणादो । जे पुण तेसि सचित्तवग्गणसण्णिदपोग्गलाणं बंधणगुणण तत्थ समवेदा पोग्गला जे च सीसवालदंता इव तज्जोणिभावेणुप्पण्णा च जीवेण अणणुगयभावादो अलद्धसचित्तवग्गणववएसा ते एत्थ विस्सासुवचया घेत्तव्बा । ण च णिज्जीवविस्सासुवचयाणं अत्थित्तमसिद्धं, रुहिरर-वस- सुक्क-रस सेंभ- पित्त- मुत्त खरिस-मत्थुलिंगादीनं जीववज्जियाणं विस्सासुवचयाणमुवलंभादो । ण च दंतहड्डवाला इव सव्वे विस्तासुव उत्पन्न हुए पत्थर, सर्ज नामके वृक्षविशेष, अर्जुन, नीम, कदम्ब, आम, जामुन, जम्बीर, सिंह और हरिण आदिके ये सब विस्रसोपचय में अन्तर्भूत जानने चाहिए। वहाँ मिट्टी आदिकी उत्पत्ति प्रसिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, शैलके पानी में गिरे हुए पत्तोंका शिलारूपसे परिणमन देखा जाता है तथा शुक्तिपुट में गिरे हुए जलबिन्दुओं का मुक्ताफलरूपसे परिणमन उपलब्ध होता है । वहाँ पञ्चेन्द्रिय सम्पर्च्छन जीवोंकी उत्पत्ति असिद्ध है यह बात भी नहीं है, क्योंकि, वर्षाकालके प्रारंभ में वर्षा के जल और पृथिवी के संबंध से मेंढक, चूहा, मछली और कछुआ आदिकी उत्पत्ति देखी जाती है। इनका विस्रसोपचयपना असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कर्मोदयके बिना उपचित हुए पुद्गलोंके विस्रसोपचय होने में कोई विरोध नहीं आता है । इनका महामत्स्य होना असिद्ध है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, मनुष्य के जठरमें उत्पन्न हुई कृमिविशेषकी भी मनुष्य संज्ञा उपलब्ध होती है। इन सबके ग्रहण करनेसे उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है यह बात सिद्ध होती है । अथवा औदारिक, तैजस और कार्मण परमाणु पुद्गलों के बन्धन गुण के कारण जो एक बन्धनबद्ध विस्रसोपचय संज्ञावाले पुद्गल हैं उनका सचित्तवर्गणाओं में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, उनका जीवके साथ परस्परमें अनुगतपना देखा जाता है । परन्तु उन सचित्तवर्गणा संज्ञावाले पुद्गलों के बन्धन गुणके कारण जो पुद्गल वहाँ समवेत होते हैं और जो सीसपाल में दाँतों के समान उनके योनिरूपसे उत्पन्न हुए हैं वे जीवसे अनुगत नहीं होनेके कारण सचित्तवर्गणा संक्षाको नहीं प्राप्त होते, इसलिए उन्हें यहाँ विस्रसोपचयरूप से ग्रहण करना चाहिए । निर्जीव विस्रसोपचयोंका अस्तित्व असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, जीवरहित रुधिर, वसा, शुक्र, रस, कफ, पित्त, मूत्र, खरिस और मस्तक मेंसे निकलनेवाले चिकने द्रवरूप विस्रसोपचय उपलब्ध होते हैं । दाँतों की हड्डियोंके समान सभी विस्र सोपचय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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