________________
५, ६, ५५४ )
धानुयोगद्दारे सरीरविस्सा सुवचयपरूवणा
( ४६१
एवं बादरणिगोदवग्गणाए जहणियाए जहण्णओ विस्तासुवचओ थोवो अप्पो ति भणिदं होदि । एवं सुत्तं बाहिरवग्गणाए ण होदि, जहण्णबादरणिगोववग्गणाए सामित्तपदुप्पायनादो ? ण, विस्सासुवचयसामित्तं मोत्तूण बादरणिगोदवग्गणाए पहाणत्ताभावादो ।
सुहुमणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए छष्णं जीवणिकायाणं एयबंधणबद्धाणं सविडिवाणं संताणं सव्वक्कस्सियाए सरीरोगाहणाए वट्टमाणस्स उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो ॥ ५५४ ॥
एदेण सुत्तेण सुमणिगोव उक्कस्तवग्गणाए सामित्तपरूवणदुवारेण उक्कस्सविस्सासुवचयस्त सामित्तं परुविदं । तं जहा सव्बुक्कस्सियाए सरीरोगाहणाए वट्टमाणस्स महामच्छस्स उक्कस्सिया सुहुमणिगोदवग्गणा होदि । कुदो? छष्णं जीवनिकायाणं एयबंधणबद्वाणं सविडिदाणं संताणं तत्थुवलंभादो । छष्णं जीवणिकायाणं सरीरसमवाओ एयबंधणं णाम । तेण एयबंधणेण बद्धाणं सपिडिदाणमवबद्धाणं च जीवाणं गहणं कायव्वं । संपहि पुणो एवंविहसुहुमणिगोदवग्गणाए arataयाए उक्कस्सओ विस्सासुवचओ होदि । कुदो? तत्थतणाणंतजीवतिसरीरापंतपरमाणुपोग्गलाणं बंधणगुणेण संबद्धणोकम्मपोग्गलाणं बहुत्तुवलंभादो । सो च
है यह सिद्ध हुआ । इस प्रकार जघन्य बादर निगोद वर्गणाका जघन्य विस्रसोपचय स्तोक अर्थात् अल्प होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका -- यह सूत्र बाह्य वर्गणाके विषय में नहीं है, क्योंकि, इस द्वारा जघन्य बादर निगोदवर्गणाका स्वामी कहा गया है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, विस्रसोपचयके स्वामीको छोडकर बादर निगोद वर्गणाकी प्रधानता नहीं है ।
एक बन्धनबध्द और पिण्ड अवस्थाको प्राप्त हुए जीवोंकी सर्वोत्कृष्ट शरीर अवगाहनामें विद्यमान जीवकी उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणाका उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है ।। ५५४ ॥
इस सूत्र द्वारा सूक्ष्म निगोद उत्कृष्ट वर्गणा के स्वामित्वकी प्ररूपणा द्वारा उत्कृष्ट विस्रसोपचयका स्वामित्व कहा है । यथा - सबसे उत्कृष्ट शरीरकी अवगाहनामें विद्यमान महामत्स्यकी उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा होती है, क्योंकि, वहाँ पर एक बन्धनबद्ध और पिण्डीभूत छह जीवनिकाय उपलब्ध होते हैं। छह जीवनिकायोंके शरीरसमवायकी एकबन्धन संज्ञा है। इसलिए एक बन्धनरूपसे बँधे हुए और पिण्डीभूत होकर सम्बद्ध हुए जीवका ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार इस तरहकी उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा में उत्कृष्ट विस्रसोपचय होता हैं, क्योंकि, वहाँ के अनन्त जीवोंके तीन शरीरके अनन्त परमाणु पुद्गलोंके बन्धनगुणके कारण सम्बन्धको प्राप्त हुए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org