________________
५, ६, ५४० ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरविस्सासुवचयपरूवणा
जदि अणंतेहि अविभागपडिच्छेदेहि सहिदजहण्णगुणे एगगुणसद्दो वट्टदे तो दोसु जहण्णगुणेसु दुगुणसद्देण पयट्टियव्वं, अण्णहा दुसद्दपउत्तीए अणुवलंभादो ? ण एस दोसो, जहण्णगुणस्सुवरि एगाविभागपडिच्छेदे वड्डिदे दुगुणभावदंसणादो । कथमेक्कस्सेव अविभागपडिच्छेदस्स बिदियगणतं ? ण, तेत्तियमेत्तस्सेव गुणंतरस्स दव्वंतरे वडिदसणादो। गणस्स* बिदियो अवस्थाविसेसो बिदियगणो णाम । तदियो अवस्थाविसेसो तदियगणो णाम। तेण जहण्णगणेण सह दुगण-तिगणत्तमेत्थ जज्जदे, अण्णहा दुगणगुणजुत्तवग्गणाए दव्वा त्ति सुत्तं होज्ज । ण च एवं, अणुवलंभादो । एवंविहदुगणजुत्तवग्गणाए दवा सलागाहि पुवसलागाहिंतो अणंतभागहीणा। जहा पारिणामियभावेण ट्रिदपरमाणपोग्गलाणमेगपरमाणसंबंधणिमित्तवग्गणगणो संभवदि तहा एदेसिमोरालियसरीरपोग्गलाणं जीवादो अवेदाणं किण्ण संभवदि ? ण, मिच्छत्ताविपच्चएहि बज्झमाणसमए चेव सव्वजोवेहितो अणंतगुणत्तेण वडिदबंधणगणाणमोरालियादिपरमाणूणं जीवमुक्काणं पि अच्चत्तओदइयभावाणमणंतबंधणगणस्सुवलंभादो।
शंका-- यदि अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंसे युक्त जघन्य गुणमें 'एक गुण ' शब्द प्रवृत्त रहता है तो दो जघन्य गुणोंमें दो गुण' शब्दकी प्रवृत्ति होनी चाहिए, अन्यथा 'दो' शब्दकी प्रवृत्ति नहीं उपलब्ध होती ?
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जघन्य गुणके ऊपर एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि होने पर दो गुणभाव देखा जाता है ।
शंका-- एक ही अविभागप्रतिच्छेदकी द्वितीय गुण संज्ञा कैसे है ? समधान-- क्योंकि, मात्र उतने ही गुणान्तरकी द्रव्यान्तरमें वृद्धि देखी जाती है ।
गुणके द्वितीय अवस्थाविशेषकी द्वितीय गुण संज्ञा है और तृतीय अवस्था विशेषकी तृतीय गुण संज्ञा है। इस लिए जघन्य गुणके साथ द्विगुणपना और त्रिगुणपना यहाँ बन जाता है। अन्यथा 'द्विगुणयुक्त वर्गणाके द्रव्य' ऐसा सूत्र प्राप्त होगा। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, इस प्रकारका सूत्र उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार दोगुण युक्त वर्गणाके द्रव्य शलाकाओंकी दृष्टिसे पूर्वकी शलाकाओंसे अनन्तभागहीन हैं ।
शंका-- जिस प्रकार परिणामिकभावरूपसे स्थित हुए परमाणु पुद्गलोंमें एक परमाणुके सम्बन्धका निमित्तभूत वर्गणागुण सम्भव है उस प्रकार जीवसे अवेदरूप इन औदारिकशरीर पुद्गलोंमें क्यों सम्भव नहीं है ?
__ समाधान-- नहीं, क्योंकि, मिथ्यात्व आदि कारणोंसे बन्ध होते समय ही जिनमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे बन्धनगुण वृद्धि को प्राप्त हुए हैं तथा जीवसे पृथक् होकर भी जिन्होंने औदारिकभावका त्याग नहीं किया है ऐसे औदारिक परमाणुओंमें अनन्त बन्धनगुण उपलब्ध होते हैं।
अ. का. प्रत्योः ' ते दोसु ' इति पाठ।। * अ० का० प्रत्योः ' वड्डिदसण गुणस्स ' इति पाठ! । Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org