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घाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा
( ४२९
कम्मद्विविमच्छिदो । एवं जहा वेयणाए वेयणीयं वरि थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति चरिमसमयभवसिद्धिओ जादो तस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स तस्स कम्मइयसरी - रस्स जहण्णयं पदेसग्गं ।। ४९५ ।।
जहा वेयणाए जहण्णदव्वविहाणे परूविदं तहा परूवेयवं । तव्वदिरित्तमजहणं ॥। ४९६ ॥
सुगमं ।
५, ६, ४९८ )
ज्जदिभागेण ऊणयं तहा णेयव्वं ।
एवं पदमीमांसा समत्ता ।
अप्पा बहुए ति सव्वत्थोवं ओरालियसरीरस्स पदेसगं ॥ ४९७ ॥ कुदो ? साभावियादो
वेव्वियसरीरस्स पदेसग्गमसंखेज्जगुणं ॥ ४९८ ॥
को गुण ० ? सेडीए असंखे० भागो । एसो चेव गुणगारो होदित्ति कुदो road ? पुव्वं परुविद गुणगाराणुयोगद्दारादो ।
कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा। इस प्रकार जैसे वेदना अनुयोगद्वारमें वेदनीयकर्मकी अपेक्षा कहा है वैसे जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जीवितव्य के स्तोक प्रमाण में शेष रहने पर अन्तिम समयवर्ती भवसिद्ध हुआ वह अन्तिम समयवर्ती भवसिद्ध जीव कार्मणशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४९५ ॥
जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वार में जघन्य द्रव्यविधान प्ररूपणा के समय कहा है उस प्रकार कथन करना चाहिए ।
उससे व्यतिरिक्त अजघन्य प्रदेशाग्र है ।। ४९६ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
इस प्रकार पदमीमांसा समाप्त हुई ।
अल्पबहुत्वकी अपेक्षा औदारिकशरीरका प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है ॥४९७॥ क्योंकि, ऐसा स्वभाव है ।
उससे वैक्रियिकशरीरका प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है ।। ४९८ । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है शंका-- यह ही गुणकार होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? पूर्व में कहे गये गुणकार अनुयोगद्वारसे जाना जाता है ।
समाधान-
०ता० प्रती जादो तस्स कम्मइयसरीरस्स' इति पाठा ]
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