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बंधाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा
( ४२५
पढमसमयआहारयस्स पढमसमय तब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स वेडव्वियसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं ॥। ४८५ ।।
एत्थ जथा ओरालियसरीरस्स परूवणा कदा तथा कायव्वा । ओरालियवेव्वियसरीराणं जहण्ण उववादजोगेण आगदएयसमयपबद्धत्तणेण भेदाभावादो । तव्वदिरित्तमजणं ॥ ४८६ ॥
५, ६, ४८९ )
सुगमं ।
जहण्णपदेण आहारसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स ।। ४८७ ॥ सुगमं
अण्णदरस्स पमत्तसंजदस्स उत्तरं विउव्विदस्त ।। ४८८ ।। सुगमं ।
पढमसमयआहारयस्स पढमसमयतन्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स आहारसरीरस्स जहण्णयं पदेसगं ॥ ४८९ ॥
कथमाहारसरीरग्गहणस्स भवसण्णा ?न, पूर्वशरीरपरित्यागद्वारेणोत्तरशरीरोपादानस्य भवव्यपदेशात् । जदि आहारसरीरग्गहणं भवो होदि तो तत्थ अपज्जत्त
प्रथम समय में आहारक हुआ और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुआ जघन्य योगवाला वह जीव वैक्रियिकशरीर के जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४८५ ।।
यहां पर जिस प्रकार औदारिकशरीरकी अपेक्षा कथन किया है उस प्रकार कथन करना चाहिए, क्योंकि, ओदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीर में जघन्य उपपादयोगसे आये हुए एक समयबद्धपने की अपेक्षा कोई भेद नहीं है ।
उससे व्यतिरिक्त अजघन्य प्रदेशाग्र है || ४८६ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
जघन्यपदकी अपेक्षा आहारकशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है । ४८७ ।
यह सूत्र सुगम है ।
उत्तर विक्रियाकरनेवाला जो अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव है ॥ ४८८ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
प्रथम समय में आहारक हुआ और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुआ जघन्य योगवाला वह जीव आहारकशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४८९ ॥ शंका- आहारकशरीरग्रहणकी भव संज्ञा कैसे है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, यहां पूर्वशरीरका त्याग होकर उत्तर शरीरका ग्रहण होता है, इसलिए इसकी भव संज्ञा है ।
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