________________
३६०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ३०१ णिवत्तिट्ठाणाणि जीवणियट्ठाणाणि च दो वि तुल्लाणि असंखेज्जगुणाणि ।। ३०१॥
कुदो ? दसवस्ससहस्साणमुवरि समउत्तरादिकमेण णिव्वत्तिढाणाणि जीवणियढाणाणि च सरिसाणि होदूण गच्छंति जावक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि त्ति । एत्थ जीवणियढाणाणं णिवत्तिटाणाणं च जिरंतरवड्ढी कथं लब्भदे ? ण, दसवस्ससहस्समादि कादूण समउत्तराविकमेण बंधेण जाव तेत्तीससागरोवमाणि त्ति वड्ढीए विरोहाभावादो, ओवट्टणाघादेण आउअंघादिय देवेसुप्पज्जमाणे अस्सिदण णिव्वत्तिट्ठाणाणं जीवणियट्ठाणाणं च णिरंतरवड्ढीए विरोहाभावादो च । णिवत्तिट्ठाणेहितो जीवणियाणाणं विसेसाहियत्तमेत्थ किण्ण परविदं ? ण, देवणेरइएसु आउअस्स कदलीघादाभावादो तत्थ कदलीघादो पत्थि ति कुदो णव्वदे ? णिव्वत्ति-जीवणियट्ठाणाणि तुल्लाणि त्ति सुत्तण्णहाणुववत्तीदो । को गुणगारो ? पलिदो० असंखेज्जविभागो । १५ ।।
उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया ॥ ३०२ ॥
उसमें निर्वृत्तिस्थान और जीवनीयस्थान दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगणे हैं ।। ३०१ ॥
क्योंकि, दस हजार वर्षके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे निर्वृत्तिस्थान और जीवनीयस्थान समान होकर तेतीस सागरकाल तक जाते हैं ।
शंका-- यहाँपर जीवनीयस्थानोंकी और निर्वृत्तिस्थानोंकी निरन्तर वृद्धि कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, दस हजारवर्षसे लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे बन्धके द्वारा तेतीस सागर काल तक वृद्धि होने में कोई विरोध नहीं है और अपवर्तनाघातके द्वारा आयुका घात करके देवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका आश्रय लेकर निर्वत्तिस्थान और जीवनीयस्थानोंकी निरन्तर वृद्धि होने में कोई विरोध नहीं है।
शंका-- निर्वृत्तिस्थानोंकी अपेक्षा जीवनीयस्थान यहां विशेष अधिक क्यों नहीं कहे हैं ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, देव और नारकियोंमें आयुका कदलीघात नहीं होता ।
शंका-- देवों और नारकियोंमें आयुका कदलीघात नहीं होता यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- वहाँ निर्वृत्तिस्थान और जीवनीयस्थान तुल्य हैं यह सूत्र अन्यथा बन नहीं सकता है। इससे जाना जाता है कि देवों और नारकियोंमें कदलीघात नहीं होता ।
गुणकार क्या है ? पल्यसे असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उनसे उत्कृष्ट निर्वत्ति विशेष अधिक है ॥ ३०२ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org