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४२० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ४६८
बहुसो बहुसो उक्कस्सियाणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि ॥ ४६८ ।।
एत्थ उक्कस्से त्ति उत्ते आदेसुक्कस्स-ओघकस्ताणं दोण्णं पि गहणं कायध्वं । किमटुमुक्कस्सजोगेसु हिंडाविज्जदि ? बहुपोग्गलग्गहणढें ।
बहुसो बहुसो बहुसंकिलेसपरिणामो भवदि । ४६९ ।
संचिदपोग्गलाण मुक्कड्डणठें । ओरालिय-वेउब्बिय-आहारसरीरपोग्गलाणमुक्कड्डुणा त्थि । कथमेदं णवदे । तत्थ एदस्स सुत्तस्स अणवदेसादो। पुणरवि आदेसुक्कस्सजोगबिसेसपरूवगढमुत्तरसुत्त भणदि
एवं संसरिदूण थोवावसे से जीविदधए ति जोगजवमज्झस्स उवरिमंतोमुहुत्तद्धमच्छिदो । ४७० ।
चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो । ४७१ ।
दुचरिम-तिचरिमसमए उक्कस्ससंकिलेसं गदो। ४७२ ।
बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है । ४६८ ।
यहां पर उत्कृष्ट ऐसा कहने पर आदेश उत्कृष्ट और ओघ उत्कृष्ट दोनों ही का ग्रहण करना चाहिए।
शंका-- उत्कृष्ट योगवालों में किसलिए घुमाते हैं ? समाधान -- बहुत पुद्गलोंका संग्रह करनेके लिए । बहुत बहुत बार विपुल संक्लेश परिणामवाला होता है । ४६९ ।
संचित हुए पुद्गलोंका उत्कर्ष करने के लिए यह सूत्र आया है । औदारिकशरीर वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके पुद्गलोंका उत्कर्ष नहीं होता । __ शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है?
सपाधान-- क्योंकि, उन शरीरोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते समय इस सूत्रका उपदेश नहीं दिया है।
अब फिर भी आदेश उत्कृष्ट योगविशषका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
इस प्रकार परिभ्रमण करके जीवितव्यके स्तोत शेष रहने पर योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहरा । ४७० ।
अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहा । ४७१।
द्विचरम और त्रिचरम समयमें उत्कृष्ट संवलेशको प्राप्त हुआ। ४७२ ।
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